अग्निपरीक्षा में जलता है कचरा और दमकता है कुंदन

 पुरानी कहानी है कि ईश्वर से एक किसान का दु:ख देखा नहीं गया और प्रगट होकर उससे वरदान मांगने को कहा. मौसमों की मार से त्रस्त उस किसान ने मांगा कि न तो अतिशय ठंडी पड़े न गर्मी, न सूखा आए न बाढ़. मौसम हमेशा सुहावना बना रहे, जिससे फसल अच्छी हो. भगवान ने तथास्तु कहा और उस साल ऐसी फसल लहलहाई जैसी पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. किसान की खुशी का पारावार नहीं था. लेकिन जब फसल पकी तो उसने देखा कि बालियों में दाने ही नहीं थे! और तब किसान ने फिर से ईश्वर को याद किया तो उन्होंने बताया कि अनुकूल मौसम से फसल लहलहा सकती है लेकिन वह उपजाऊ तो विपरीत मौसमों को झेलकर ही बनती है.

  वर्ष 2009 में सरकार से भी छात्रों का दु:ख देखा नहीं गया था और उसने ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ के अंतर्गत आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को परीक्षा से भयमुक्त कर दिया अर्थात वे परीक्षा में पास हुए बिना भी अगली कक्षा में प्रमोट हो सकते थे. लेकिन परीक्षा कोई आसमान से टपकी वस्तु तो है नहीं, वह तो विद्यार्थी द्वारा साल भर की गई मेहनत का मूल्यांकन मात्र है. और स्व-अनुशासन तो कई बार हम बड़ों के भीतर भी नहीं आता, फिर बच्चों से कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे बिना परीक्षा के डर के भी पढ़ाई में खेल की तरह मन लगाएंगे!(शांतिनिकेतन का निर्माण करने वाले गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे स्वप्नद्रष्टा तो युगों में एक बार ही होते हैं, जिन्होंने शिक्षा को प्रकृति के बीच ले जाकर आनंद की वस्तु बना दिया था). नतीजतन शिक्षा के गिरते स्तर को देखते हुए सरकार ने पांचवीं और आठवीं कक्षा के छात्रों को फेल होने के बाद भी अगली कक्षा में प्रमोट करने के फैसले को अब वापस ले लिया है. 

छात्रों का चरम सीमा तक तनावग्रस्त होना कोई नई बात नहीं रह गई है. प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी का हब बन चुके कोटा से विद्यार्थियों के तनाव में आकर आत्महत्या करने की खबरें आए दिन आती रहती हैं. समस्या यह है कि कोचिंग संस्थान अगर पढ़ाई में ढील देते हैं तो गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में विद्यार्थियों के पिछड़ जाने का खतरा रहता है और कड़ाई करते हैं तो तनाव नहीं सह पाकर उनके अतिवादी कदम उठा लेने का. तो क्या वीणा के तारों की तरह हमें भी ऐसा संतुलन बनाने की कोशिश करनी चाहिए कि तार इतना भी ढीला न हो कि सुर ही न निकले और इतना कसाव भी न हो कि टूट ही जाए! 

इस समस्या का हल हमें अपने पूर्वजों की सीख में भी मिल सकता है. कबीरदास जी सदियों पहले कह गए हैं कि ‘‘गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।’’ बाल्यकाल भी कच्चे घड़े की तरह ही होता है, जो हल्के प्रहार से भी टूट सकता है. लेकिन बिना गढ़े कमियां भी तो दूर नहीं हो सकतीं! इसीलिए गुरु एक हाथ से भीतर से सहारा देते हैं और दूसरे हाथ से बाहर से चोट करते हैं. आज शायद हम बच्चों को भीतर से सहारा देना भूल गए हैं, इसीलिए बाहर की हल्की-सी भी चोट वे बर्दाश्त नहीं कर पाते!

हमें समझना होगा कि बच्चों को कसौटी पर कसने से बचाने में उनकी भलाई नहीं है. इसकी बजाय संस्कार देकर हम उन्हें इतना खरा सोना बनाएं कि आग में तप कर वे कुंदन की तरह और भी दमकें, न कि कचरे की तरह जल कर भस्म हो जाएं. क्या हम उन्हें भीतर से सहारा देकर बाहर से तपाने को तैयार हैं? चीन में भविष्य के एथलीटों को बचपन से ही तपाया जाता है, जिससे वे ओलंपिक में पदकों की बरसात करते हैं. अगर वे निर्दय तरीका अपना कर इतना कुछ हासिल कर सकते हैं तो हम सहृदय तरीके से क्या नहीं पा सकते? 

25 दिसंबर 2024 को प्रकाशित

Comments

  1. छू गई यह लाइन-आज शायद हम बच्चों को भीतर से सहारा देना भूल गए हैं, इसीलिए बाहर की हल्की-सी भी चोट वे बर्दाश्त नहीं कर पाते!

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