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Showing posts from February, 2025

सुनहरा श्रम

जब बुरी तरह थक जाता हूं आती है गहरी नींद सुनहरे सपनों में खो जाता हूं। सपने देते हैं सम्बल दिनभर की थकान हर लेते हैं फिर से करने को मेहनत अगली सुबह ताजगी देते हैं। जिस दिन करता हूं काम नहीं उस दिन आती है नींद नहीं दु:स्वप्न रातभर आते हैं। मैं कभी-कभी सोचा करता सपनों की खातिर घोर परिश्रम करता हूं या बिना थके कर सकूं काम इसलिये सुनहरे सपने देखा करता हूं! रचनाकाल : 26 फरवरी 2025

देने का सुख

मैं नहीं चाहता मिले सफलता हरदम ही पर कोशिश पूरी करूं नहीं तो गहरी पीड़ा होती है सच तो यह है होने पर भी हकदार नहीं अधिकार मिले तो कर्जदार ईश्वर भी ऐसे लोगों का हो जाता है राजा बलि हों या शिबि, दधीचि जैसे दानी दाता भी उनके आगे शीश झुकाता है जो परम दानियों को सुख मिलता परम अगर बस एक बार मिल जाय झलक फिर होगा ऐसा कौन भला जो उसे न पाना चाहेगा? दरअसल दौड़ते देख बाकियों को अक्सर ही हम भी सोचे बिना दौड़ने लगते हैं जिस तरह आज कुछ पाने की ही लगी होड़ यदि दिशा बदल जाये उसकी तो देने की ज्यादा से ज्यादा, दौड़ शुरू हो जायेगी इसलिये सफलता से स्वेच्छा से वंचित हो देने के सुख को दिखा-दिखा लेने वाले लोगों को ललचाने की कोशिश करता हूं देने का सुख पाने को प्रेरित करता हूं। रचनाकाल : 25 फरवरी 2025

छल-कपट सीखता एआई और खत्म होती नैतिकता का संकट

 दुनिया में भले ही अनगिनत प्रजातियों के जीव रहते हों लेकिन ईमानदारी और बेईमानी कदाचित हम मनुष्यों की ही विशेषता रही है. इसलिए यह खबर चिंता पैदा करने वाली हो सकती है कि एआई (आर्टिफिशियल इंजेलिजेंस) ने अच्छी-खासी बेईमानी सीख ली है. चूंकि वह ‘ट्रायल एंड एरर’ का उपयोग करके समस्याओं को हल करना सीखता है, इसलिए असंभव नहीं है कि यह जल्दी ही हम मनुष्यों के नियंत्रण से बाहर हो जाए, क्योंकि उसका लक्ष्य किसी भी तरीके से समस्या समाधान करना होता है. रिसर्च फर्म पैलिसेड रिसर्च के एक अध्ययन से पता चला है कि एआई मॉडल जब शतरंज जैसे खेल में हारने लगता है तो अपने प्रतिद्वंद्वी को हैक करके खेल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता है अर्थात एआई मॉडल जब मुश्किल में होते हैं, तो नियमों से खेलने के बजाय अप्रत्याशित तरीके अपनाने लगते हैं. परीक्षण के दौरान ओपन एआई के मॉडल ओ1-प्रिव्यू ने 37 प्रतिशत बार धोखाधड़ी करने की कोशिश की, जबकि डीपसीक आर1 ने 11 प्रतिशत बार ऐसा किया.  बेईमानी हम इसीलिए करते हैं कि वह किसी समस्या के समाधान का शॉर्टकट उपलब्ध कराती है. चूंकि हम उसके साइड इफेक्ट को जानते हैं और अनुभव से ...

पीड़ा का सौंदर्य

सुख में तो सब हंस लेते है पर दु:ख में जो हंसने की क्षमता रखते हैं वे ही आकर्षित करते हैं जो गीत कसक पैदा करते वे गहरी पीड़ा सहने वाले गायक के कंठों से निकला करते हैं। मैं खूब अलंकृत भाषा में लिखने की कोशिश करता था पर जान नहीं आ पाती थी अब जो भी लिखना होता है जीने की कोशिश करता हूं जो भी लिखता, जीवंत वही बन जाता है। फूलों जैसी सुंदरता मैं जब कृत्रिम ढंग से पाता था वंचित सुगंध से रहता था अब भीतर से सुंदर बनने का जतन हमेशा करता हूं कस्तूरी मृग सी खुशबू फैला करती है। रचनाकाल : 20 फरवरी 2025

...सदा मगन मन रहना जी

जो लोग किया करते थे तप दु:ख में भी वे सुख पाते थे हरदम आनंदित रहते थे ‘आनंद’ शब्द है ऐसा जिसका होता नहीं विलोम कोई खुश रहना जिसने सीख लिया हर हालत में फिर भला उसे क्या चीज दु:खी कर सकती है! इसलिये धर्म या चाहे किसी बहाने से जो लोग उठाते कष्ट, तपाते हैं खुद को मैं नहीं तोड़ता श्रद्धा उनकी प्रोत्साहित ही करता हूं दरअसल मानते नहीं किसी ईश्वर को जो वे स्वेच्छा से दु:ख सहने से कतराते हैं आनंद इसी कारण पाने से भी वंचित रह जाते हैं। जब हो जायेगा परम ज्ञान तब ईश्वर है या नहीं प्रश्न ही कोई नहीं उठाएगा लेकिन आती है जब तक नहीं अवस्था वह मैं सबकी आस्थाओं को पोषित करके उनके जरिये ही लोगों को कष्ट उठाने को स्वेच्छा से, प्रेरित करता हूं वे ताकि परे सुख-दु:ख से यह भी जान सकें ‘आनंद’ चीज क्या होती है। रचनाकाल : 19 फरवरी 2025

महाकुंभ में महाजाम और महाप्रदूषण से बचा जा सकता था

 बाढ़ सिर्फ पानी की ही नहीं आती, मनुष्यों की भी आती है. जिसे जनसैलाब को वास्तविक अर्थों में देखने की इच्छा हो, उसे प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ में अवश्य जाना चाहिए. वैसे, ऐसी इच्छा रखने वालों का भी शायद महासैलाब लाने में कम योगदान नहीं है, वरना मौनी अमावस्या पर भगदड़ की त्रासदी के बाद किसे उम्मीद थी कि पवित्र माघ मास खत्म होने के बाद भी श्रद्धालुओं का रेला धीमा नहीं पड़ेगा! सभी लोगों ने शायद सोच रखा था कि माघी पूर्णिमा के बाद भीड़ कम होगी, और ऐसा सोचने वाले जब एक साथ सड़कों पर निकल पड़ें तो जाहिर है कि सैलाब तो आना ही है!  भारत प्राचीन काल से ही श्रद्धालुओं का देश रहा है. यातायात के साधन जब आज की तरह सुलभ नहीं थे, तब भी लोग देश के चार कोनों में स्थित चारों धाम(बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम) की यात्रा जीवन में कभी न कभी करने की इच्छा मन में संजोये रहते थे. लेकिन तब यात्रा पूरी कर घर लौट कर आ पाने की गारंटी नहीं रहती थी, इसलिए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरी कर, अधेड़ उम्र के बाद ही लोग ऐसी यात्राओं पर निकलते थे. पचमढ़ी के दुर्गम नागद्वार की यात्रा करते समय...

विपरीत मौसम और कठोर परिश्रम के बाद ही आता है वसंत

 वसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है. लेकिन अब यह सिमट रहा है. आमतौर पर फरवरी और मार्च में वसंत का अहसास होता है लेकिन मौसम विभाग का कहना है कि इस साल फरवरी के उत्तरार्ध से ही तीखी गर्मी का अहसास होने लगेगा.  राजनीति में भी वसंत सिमटता महसूस हो रहा है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प अपने पहले कार्यकाल में कदाचित खुलकर नहीं खेल पाए थे. लेकिन दूसरे कार्यकाल में वे आत्मविश्वास से लबालब हैं और कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही ताबड़तोड़ आदेश जारी कर रहे हैं. ग्रीनलैंड और पनामा नहर पर कब्जे की धमकी के सदमे से लोग उबरे भी नहीं थे कि उन्होंने गाजा पट्टी पर कब्जे का एटम बम फोड़ दिया. अब अवैध प्रवासियों को वे हथकड़ी-बेड़ी लगाकर अमेरिका से निकाल रहे हैं. भारत में भी राजनीति के घटाटोप के बीच वसंत की उम्मीद में ही लोगों ने आम आदमी पार्टी को चुना था. लेकिन जिस तरह से शराब घोटाला और ‘शीशमहल’ जैसे मामले उठे, उसने आम आदमी की उम्मीदों को तोड़ दिया है.   बदलाव सिर्फ प्रकृति या राजनीति में ही नहीं हो रहा. सुख-समृद्धि की हमारी परिभाषा भी शायद बदल रही है. अब महंगे ब्रांड्‌स अमीरों का स्टेटस स...

बदलते पैमाने

जब कच्चे घर में रहते थे मोटा अनाज खाते थे तब वह मजबूरी ही लगती थी सुख-सुविधाएं जब बढ़ीं मगर पक्के मकान बन गये सभी जो दुर्लभ था चावल-गेहूं वह सुलभ हुआ तो स्मृति बनकर रह गये पुराने घर की, खाने-पीने की याद आती है। बेशक थी बहुत असुविधा, लेकिन लगता है मिट्टी के घर में रहने का जो सुख था वह भी साथ-साथ दु:ख-कष्टों के ही चला गया पकवानों की अब रहती है भरमार मगर रूखे-सूखे का स्वाद न जाने लगता है क्यों नया-नया! मजबूरी में खाते थे जो मोटा अनाज अब वही बाजरे की रोटी और साग चने का खाने का मन करता है सुख का यह कैसा है रहस्य जो फटे पहनते थे कपड़े मजबूरी में अब नयी जींस भी फटी पहनना ही फैशन-सा बनता है! रचनाकाल : 9 फरवरी 2025

सफलता का पैमाना

जब समय चल रहा हो अच्छा मिट्टी भी छूते ही सोना बन जाती है पर बुरे समय में विपदाओं की लाइन सी लग जाती है शायद कारण है यही बिना मेहनत के भी कुछ लोग सुखी दिख जाते हैं कुछ खटते हैं दिन-रात मगर दु:ख-कष्ट हमेशा पाते हैं। दरअसल पेड़ कुछ फलीभूत होते जल्दी कुछ देरी से फलदार मगर बन पाते हैं ऐसे ही कुछ कर्मों के फल मिल जाते हमें तुरंत मगर कुछ देरी से मिल पाते हैं। इसलिये नहीं फल के जरिये आकलन स्वयं का करता हूं पैमाना बस यह होता है मैं कितनी कोशिश करता हूं होता हूं कभी निराश नहीं फल चाहे मुझको मिले नहीं जब लोग समझते हैं असफल मैं तब भी मेहनत करने पर अपने को सफल समझता हूं। रचनाकाल : 4 फरवरी 2025

जटिल को जटिलतर बनाने की कला से कैसे होगा भला ?

 दुनिया नियमों से चलती है. हम मनुष्य स्वभाव से तर्कशील होते हैं और माना जाता है कि हम हर चीज का तार्किक ढंग से होना पसंद करते हैं. लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है?  हाल ही में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मनभावन बजट पेश किया. इससे नौकरीपेशा वर्ग की बांछें खिल गईं क्योंकि स्टैंडर्ड डिडक्शन मिलाकर पूरे पौने तेरह लाख रु. की कमाई को टैक्समुक्त कर दिया गया है. लेकिन इससे ज्यादा कमाई होने पर चार लाख रु. से ही टैक्स लगना शुरू हो जाता है और टैक्स की जटिलताओं से पहले ही घबराने वाले आम आदमी की माथापच्ची इससे और ज्यादा बढ़ गई है. दरअसल पौने तेरह लाख रु. सालाना कमाने वालों के लिए तो देय टैक्स शून्य है लेकिन अगर आपकी कमाई तेरह लाख पैंतालीस हजार रु. है तो आपको 2800 रु. हेल्थ एवं एजुकेशन सेस सहित कुल 72800 रु. टैक्स चुकाना पड़ेगा. इस तरह आपकी शुद्ध कमाई पौने तेरह लाख रु. कमाने वाले से भी 2800 रु. कम हो जाएगी! तो क्या आपको अपने नियोक्ता से यह कहना चाहिए कि अगर वह आपको सालाना तेरह लाख पैंतालीस हजार रु. वेतन दे रहा है तो उसे कम करके पौने तेरह लाख रु. ही दे, क्योंकि इससे नियोक्ता को भी फायदा होगा ...

अंतहीन इंतजार

मरते हैं जिसके परिजन या फिर प्रियजन उसको दु:ख तो गहरा होता है पर गुम जाते हैं जिसके कैसे तिल-तिल कर वह मरता है क्या बिना स्वयं पर गुजरे कोई जानेगा! जो लोग कुम्भ में भगदड़ में मर गये अश्रुपूरित नयनों ने उनको श्रद्धांजलि दे दी पर पता नहीं चल पाया जिनका इंतजार क्या उनका प्रियजन नहीं करेंगे जीवन भर? सरकारों की तो आदत है आंकड़े छिपाने की हरदम क्या पता रेत में दबा दी गई या गंगा में बहा दी गई हों जाने कितनी लाशें छवि ताकि साफ-सुथरी शासन की दिखे मगर जो लोग हजारों भटक रहे हैं फोटो लेकर अपनों की भरपाई तो दु:ख की हो सकती नहीं किंतु भौतिक मुआवजे से भी तो वंचित ही वे रह जायेंगे! रचनाकाल : 1 फरवरी 2025