बदलते पैमाने

जब कच्चे घर में रहते थे
मोटा अनाज खाते थे
तब वह मजबूरी ही लगती थी
सुख-सुविधाएं जब बढ़ीं मगर
पक्के मकान बन गये सभी
जो दुर्लभ था चावल-गेहूं वह सुलभ हुआ
तो स्मृति बनकर रह गये
पुराने घर की, खाने-पीने की याद आती है।
बेशक थी बहुत असुविधा, लेकिन लगता है
मिट्टी के घर में रहने का जो सुख था
वह भी साथ-साथ दु:ख-कष्टों के ही चला गया
पकवानों की अब रहती है भरमार मगर
रूखे-सूखे का स्वाद न जाने लगता है क्यों नया-नया!
मजबूरी में खाते थे जो मोटा अनाज
अब वही बाजरे की रोटी
और साग चने का खाने का मन करता है
सुख का यह कैसा है रहस्य
जो फटे पहनते थे कपड़े मजबूरी में
अब नयी जींस भी फटी पहनना ही
फैशन-सा बनता है!

रचनाकाल : 9 फरवरी 2025

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