महाकुंभ में महाजाम और महाप्रदूषण से बचा जा सकता था
बाढ़ सिर्फ पानी की ही नहीं आती, मनुष्यों की भी आती है. जिसे जनसैलाब को वास्तविक अर्थों में देखने की इच्छा हो, उसे प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ में अवश्य जाना चाहिए. वैसे, ऐसी इच्छा रखने वालों का भी शायद महासैलाब लाने में कम योगदान नहीं है, वरना मौनी अमावस्या पर भगदड़ की त्रासदी के बाद किसे उम्मीद थी कि पवित्र माघ मास खत्म होने के बाद भी श्रद्धालुओं का रेला धीमा नहीं पड़ेगा! सभी लोगों ने शायद सोच रखा था कि माघी पूर्णिमा के बाद भीड़ कम होगी, और ऐसा सोचने वाले जब एक साथ सड़कों पर निकल पड़ें तो जाहिर है कि सैलाब तो आना ही है!
भारत प्राचीन काल से ही श्रद्धालुओं का देश रहा है. यातायात के साधन जब आज की तरह सुलभ नहीं थे, तब भी लोग देश के चार कोनों में स्थित चारों धाम(बद्रीनाथ, द्वारका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम) की यात्रा जीवन में कभी न कभी करने की इच्छा मन में संजोये रहते थे. लेकिन तब यात्रा पूरी कर घर लौट कर आ पाने की गारंटी नहीं रहती थी, इसलिए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरी कर, अधेड़ उम्र के बाद ही लोग ऐसी यात्राओं पर निकलते थे. पचमढ़ी के दुर्गम नागद्वार की यात्रा करते समय जब यह जानने की उत्सुकता हुई कि जगह-जगह पत्थरों के छोटे-छोटे ढेर क्यों लगे हुए हैं तो जानकारों ने बताया कि सीधी चढ़ाई वाले पहाड़ों से जब कोई फिसल कर नीचे घाटियों में गिरता था तो साथ चलने वाले तीर्थयात्री शव को पत्थरों से ढंक कर, हाथ जोड़कर आगे प्रस्थान कर जाते थे.
प्रयागराज में गंगा किनारे हर साल माघ के दौरान एक माह तक श्रद्धालु कल्पवास करते हैं और उस दौरान दिन में केवल एक बार भोजन करते हुए बहुत से कठिन विधि-विधानों का पालन करते हैं. गंगाजी में स्नान के पुण्य की बात भले ही न मानें लेकिन पूस-माघ की कड़कड़ाती ठंड में तड़के चार बजे बर्फ की तरह ठंडे पानी में स्नान करने से तन-मन को जो लाभ होता है, उससे शायद नास्तिक भी इंकार नहीं कर सकते! अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि हमारे अधिकांश देवी-देवता पर्वत शिखरों पर ही बसते हैं और तीर्थ स्थल दुर्गम क्षेत्रों में ही होते हैं. यह अकारण नहीं है. इसके पीछे सोच यह थी कि दर्शन के बहाने लोग जब कठिन यात्रा करके वहां तक पहुंचेंगे तो स्वास्थ्यगत लाभ तो उन्हें स्वयमेव प्राप्त हो जाएगा.
आज तीर्थयात्राएं दुर्गम नहीं रह गई हैं. हिमालय के सुदूर हिमाच्छादित प्रदेशों तक हम अपनी कार से जा सकते हैं और जिन पर्वत शिखरों तक रोड नहीं जाती, वहां रोपवे से पहुंच सकते हैं. लेकिन इस सुविधा के कारण उत्तराखंड में चारों धाम (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ) की यात्रा के दौरान पिछले साल जो जाम लगा, वह दृश्य रोमांचित तो करता है, डराता भी है कि इस प्रदूषण से हिमालय के कच्चे पहाड़ों का इको सिस्टम कहीं तबाह न हो जाए!
जहां तक महाकुम्भ में यातायात व्यवस्था की बात है, चालीस-पचास करोड़ लोगों के आने का अनुमान अगर पहले से ही था तो हर चीज का सूक्ष्म नियोजन पहले से किया जाना चाहिए था. चौराहों पर गोलंबर (ट्रैफिक सर्कल) नहीं होने से किसी एक वाहन के यूटर्न लेने या सड़क पार करने की कोशिश से भी लंबा जाम लग जाता था. प्रयागराज में, शहर के बाहर जहां चारों दिशाओं से विभिन्न राजमार्ग मिलते हैं, वहां लगने वाले जाम पीछे सैकड़ों किमी तक फैल रहे थे. महाकुम्भ के दौरान डेढ़ माह के लिए शहर की सीमा से 20-25 किमी की दूरी तक हर तरह के निजी वाहनों के प्रवेश को प्रतिबंधित करके सिर्फ भरपूर संख्या में महाकुम्भ स्पेशल बसों से यात्रियों को गंगा किनारे तक लाया-ले जाया जाता तो शायद कटनी-जबलपुर तक तीन-साढ़े तीन सौ किमी के महाजाम का दु:खद विश्व रिकॉर्ड न बन पाता और न वाहनों के सैकड़ों किमी तक रेंगने से पैदा होने वाला महाप्रदूषण ही होता!
(19 फरवरी 2025 को प्रकाशित)
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