पलायन नहीं, प्रतिरोध
मेहनत लगती थी भले मगर मैं खुशी-खुशी साइकिल चलाया करता था लगता था पर्यावरण बचाने में है मेरा योगदान हो रहे लोग भी जागरूक उस तरह न हीन समझते हैं। पर कहा एक दिन आफिस में जब सिक्योरिटी के साहब ने कोने में ही साइकिल रखो सब छेंक रहे हैं जगह साइकिल वाले बढ़-बढ़ कर आगे मानो सारा भ्रम टूट गया साइकिल उसी दिन से ही लाना छोड़ दिया। जब कविता अपने आप छपी अखबार एक प्रादेशिक में पूछा वरिष्ठ सहयोगी ने कैसे यह इतनी दूर छपी यह कहीं ‘बार्टर’ का तो नहीं मामला है! यद्यपि कह दिया उन्होंने यह था बस मजाक पर लगा मुझे क्यों लोग न समझें लेन-देन या मिलीभगत दुनिया में चल तो यही रहा है सभी जगह! तो दिखने को ईमानदार क्या पत्रकारिता या कविता में एक किसी की देनी होगी कुर्बानी? आया था शहर गांव से जब कारण था यही कि खेती में दुर्दशा नहीं बैलों की देखी जाती थी अब करता श्रम, पाता वेतन शोषण न शहर में दिखता है पर सचमुच क्या वैसा है जैसा दिखता है? अब लगता है मैं करता आया सदा पलायन संकट से बैलों की करके सेवा उनसे काम खेत में लेना था अधिकार साइकिल रखने खातिर पाने को प्रतिरोध सुपरवाइजर गार्ड का करना था सहयोगी कुछ भी समझें पर कविता...