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Showing posts from March, 2025

पलायन नहीं, प्रतिरोध

मेहनत लगती थी भले मगर मैं खुशी-खुशी साइकिल चलाया करता था लगता था पर्यावरण बचाने में है मेरा योगदान हो रहे लोग भी जागरूक उस तरह न हीन समझते हैं। पर कहा एक दिन आफिस में जब सिक्योरिटी के साहब ने कोने में ही साइकिल रखो सब छेंक रहे हैं जगह साइकिल वाले बढ़-बढ़ कर आगे मानो सारा भ्रम टूट गया साइकिल उसी दिन से ही लाना छोड़ दिया। जब कविता अपने आप छपी अखबार एक प्रादेशिक में पूछा वरिष्ठ सहयोगी ने कैसे यह इतनी दूर छपी यह कहीं ‘बार्टर’ का तो नहीं मामला है! यद्यपि कह दिया उन्होंने यह था बस मजाक पर लगा मुझे क्यों लोग न समझें लेन-देन या मिलीभगत दुनिया में चल तो यही रहा है सभी जगह! तो दिखने को ईमानदार क्या पत्रकारिता या कविता में एक किसी की देनी होगी कुर्बानी? आया था शहर गांव से जब कारण था यही कि खेती में दुर्दशा नहीं बैलों की देखी जाती थी अब करता श्रम, पाता वेतन शोषण न शहर में दिखता है पर सचमुच क्या वैसा है जैसा दिखता है? अब लगता है मैं करता आया सदा पलायन संकट से बैलों की करके सेवा उनसे काम खेत में लेना था अधिकार साइकिल रखने खातिर पाने को प्रतिरोध सुपरवाइजर गार्ड का करना था सहयोगी कुछ भी समझें पर कविता...

बेहद डरावनी है कुएं में ही भांग घुली होने की आशंका

 एक माननीय न्यायदाता के सरकारी आवास पर दिखे नोटों के जले-अधजले बंडलों के ढेर ने पूरे देश को सन्न कर दिया है. भ्रष्टाचार देश या दुनिया के लिए नई बात नहीं है और धनकुबेरों के घरों से इतनी नगदी बरामद होने की खबरें अक्सर आती रहती हैं जिसे गिनने में मशीनें तक थक जाती हैं. लेकिन कहावत है कि चादर अगर साफ हो तो दाग ज्यादा गहरे दिखते हैं. इसमें दो राय नहीं कि देश में अगर किसी भी विभाग की चादर सबसे ज्यादा साफ है तो वह न्यायपालिका ही है. विपक्ष या विरोधियों को भी और किसी पर विश्वास हो या नहीं, न्यायपालिका पर सबका भरोसा निर्विवाद है. इसीलिए न्यायपालिका को अनावश्यक आलोचनाओं से बचाव का सुरक्षा-कवच भी मिला हुआ है ताकि छिद्रान्वेषी तत्व उसकी गरिमा को गिराने की कोशिश न करें.  लेकिन जब लोगों को लगने लगे कि कुछ छिपाने की कोशिश की जा रही है तो तरह-तरह की आशंकाएं जन्म लेने लगती हैं. छिपे हुए को जानने की मनुष्य के भीतर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है, इसलिए अफवाहों को रोकने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है कि संबंधित पक्षों द्वारा स्थिति को पहले ही पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया जाए और अगर कहीं अपराध हुआ है तो दंड...

गरिमामय जीवन

पहले मुझको यह लगता था सब बीत चुके सतयुग, त्रेता या द्वापर युग दुनिया में इतने बड़े हो चुके महापुरुष हम कभी नहीं उनके कद को छू पायेंगे दुनिया में बौने बनकर ही रह जायेंगे! पर मिले विरासत में यदि हमें खण्डहर तो क्या हम ही बस उसके दोषी कहलायेंगे जो कठिन समय आया हिस्से में जीवन के क्या उसका कोई मूल्य नहीं झेला विनाश, फिर भी क्या सदा विनाशक माने जायेंगे? महसूस मगर यह होता है इतिहास नहीं इतना निर्मम हो सकता है कोशिश यदि हम ईमानदार कर सकें मिले जो हिस्से में खण्डहर उन्हीं से सृजन नया कर सकें भले वह नजर न आये भव्य महल संघर्षों की गाथा के लेकिन शिलालेख बन जायेंगे टूटे-फूटे ही सही मगर अपनी नजरों में कम से कम गरिमामय तो बन पायेंगे! रचनाकाल : 20-21 मार्च 2025

डर

बेचैनी इतनी ज्यादा है पागल ही कहीं न हो जाऊं डर लगता है। दुनिया में व्याकुल रहने के कारण पर इतने ज्यादा हैं सो जाऊं लेकर अगर दवा बेचैनी खत्म न हो जाये आदत न कहीं सुख से रहने की पड़ जाये इससे ज्यादा डर लगता है। रचनाकाल : 9 मार्च 2025

जवानी में वरदान और बुढ़ापे में अभिशाप बनती अमरता की चाह

 अमर होने की हम मनुष्यों की चाहत कोई नई बात नहीं है. हजारों साल से इसीलिए अमृत की खोज की जाती रही है. अपनी जवानी को लंबा करने के लिए बेटे की उम्र मांग लेने की राजा ययाति की पौराणिक कथा जगप्रसिद्ध है. कुछ समय पहले एक प्रसिद्ध अरबपति द्वारा बेटे का प्लाज्मा अपने  शरीर में इंजेक्ट करवाने की खबर आई थी. अब अमेरिका की एक महिला ने खुलासा किया है कि वह अपनी जवानी बरकरार रखने के लिए अपने बेटे के खून का इस्तेमाल करने वाली है. हालांकि वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि इसके गंभीर स्वास्थ्य परिणाम हो सकते हैं लेकिन भोग-विलास की लालसा इतनी प्रबल है कि पागलपन थम नहीं रहा! प्राचीन विद्वान संतुलन के महत्व को जानते थे. इसीलिए उन्होंने मानव जीवन को चार आश्रमों(भागों) में बांटा था- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास. मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानते हुए उन्होंने प्रत्येक आश्रम के लिए 25-25 वर्ष निर्धारित किए थे. शुरुआती 25 वर्ष विद्याध्ययन के बाद 25 से 50 वर्ष तक की उम्र गृहस्थाश्रम के लिए निर्धारित थी. उसके बाद अगले 25 वर्ष वह सलाहकार की भूमिका में रहता था और 75 वर्ष का होते ही संन्यास लेकर...

विरासत उत्सव की

क्या हुआ प्राकृतिक रंग मिलते नहीं केमिकल ही कलर खेल लो दोस्तो ये विरासत कोई ऐसी-वैसी नहीं होली जी-भर मनाते चलो दोस्तो। अब न फगुहार पहले के जैसे रहे टोलियों में जो जाते थे हर एक घर छेड़ते थे जोगीड़ा की धुन सऽरऽरऽर अब न फसलें कोई काटता हाथ से सारे बच्चे चले गये शहर काम से फूल खिलते हैं टेसू के अब भी मगर रंग उनसे बनाता है कोई नहीं कुछ भी तो पहले जैसा बचा अब नहीं! फिर भी होली-दिवाली के त्यौहार ये चलते ही आ रहे अनगिनत साल से क्या पता ये भी दिन कितने टिक पायेंगे पेड़ जर्जर न कब जाने ढह जायेंगे बन के यादें ही स्मृतियों में रह जायेंगे! ये हैं त्यौहार मामूली कोई नहीं इनमें कितने युगों की हैं यादें बसीं देंगे सम्बल कठिन ये समय में सभी हो सके तो बचा लो इन्हें दोस्तो! रचनाकाल : 14 मार्च 2025

गणितीय नियम बनाम ईश्वर का अस्तित्व और अनुशासन का महत्व

 हाल ही में मशहूर खगोलभौतिकीविद् और एयरोस्पेस इंजीनियर डॉ. विली सून, जिन्होंने हार्वर्ड और स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स में लंबे समय तक काम किया है, ने दावा किया कि गणित का फॉर्मूला ‘फाइन ट्यूनिंग तर्क’ ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है. फाइन ट्यूनिंग तर्क के अनुसार ब्रह्मांड में सारी चीजें इतनी सटीकता से हुई हैं कि अगर किसी चीज में हल्का सा भी फर्क आ जाता तो धरती पर जीवन संभव ही नहीं हो सकता था.  मजे की बात यह है कि जीवन में हमें सब कुछ रैंडम तरीके से होता नजर आता है. कई बार हमारे सामने सैकड़ों विकल्प होते हैं और कोई भी निर्णय लेना एक तरह से जुआ खेलने के समान लगता है. तो एक तरफ तो सब कुछ बेहद अनिश्चित दिखता है और दूसरी तरफ डॉ. सून कह रहे हैं कि सारी चीजें बेहद सटीकता से हो रही हैं!  अनिश्चितता के बीच निश्चितता के सिद्धांत को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है कि होने वाली संतान बेटी होगी या बेटा, यह तय करना हमारे हाथ में नहीं होता, फिर भी समाज में स्त्री-पुरुष का समान अनुपात बना रहता है (यह बात अलग है कि जांच करवाकर कुछ क्रूर लोग गर्भ में ही बेटी को मार देते ह...

याचक की दीनता का दु:ख और दाता के स्वाभिमान का सुख

 मध्यप्रदेश के मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल का यह कहना कि ‘लोगों को सरकार से भीख मांगने की आदत पड़ गई है’ चुभता तो बहुत है लेकिन यह हमारे वर्तमान समय की दु:खद सच्चाई है. लोगों को मुफ्त की चीजों का ऐसा नशा चढ़ता जा रहा है कि डर लगता है हमारा देश कहीं आलसियों और मुफ्तखोरों का समाज बनकर ही न रह जाए! लेकिन पटेल यह बात छुपा ले गए कि लोगों को मुफ्तखोर बना कौन रहा है. ऐसा नहीं है कि लोग काम करना नहीं चाहते, लेकिन सरकारों को रोजगार देने की अपनी नाकामी को छुपाने के लिए सरकारी खजाने को लुटाना ही चुनाव जीतने का सबसे आसान उपाय लगता है. जबकि लोगों को यही पैसा अगर मनरेगा जैसी सार्थक परियोेजनाओं का विस्तार करके, काम के बदले दिया जाता तो उनको वह अपनी मेहनत की कमाई लगती. बहरहाल, मंत्री पटेल ने यह कहकर पूरे समाज को आईना दिखाया है कि ‘भिखारियों की फौज इकट्ठा करना समाज को मजबूत नहीं करता, बल्कि उसे कमजोर करता है.’ कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति खुद को ‘भिखारी’ कहे जाने से तिलमिला जाएगा, लेकिन शर्मिंदगी से बचने के लिए अगर हम हकीकत को झुठलाने की कोशिश करेंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे.  हकीकत वैसे यह भी है कि...

पानी जब अमृत बनता है

जब तक था अनुभवहीन किताबी ज्ञान बहुत था ठोस नहीं पर लगता था पढ़-सुनकर यह तो जान लिया था कैसे तैरा जाता है पानी में उतरा नहीं मगर जब तक तब तक डर लगता था। मैं सीख गया गायन-वादन संगीत बहुत प्रिय लगता था संघर्ष नहीं था लेकिन जब तक जीवन में गीतों में कशिश न आ पाई मीठे में हल्का नमक कहीं कम लगता था। इसलिये सफलता भी मुझको जब मिलती बहुत सरलता से फिर भी मेहनत अतिशय करके मैं वजन डालने की उसमें कोशिश अधिकाधिक करता हूं वह ताकि खोखली नहीं लगे। सच तो यह है सुख मिलता नहीं संपदा में वरना सब पूंजीपति ही सदा सुखी रहते जो जितनी मेहनत करता है सुख उतना उसको मिलता है जब पेट भरा हो, हलुआ-पूड़ी भी उतना स्वादिष्ट नहीं तब लगता है भूखे को सूखी रोटी में जो मिलता है। इसलिये नहीं जब पानी मीठा लगता है मैं शर्बत पीने की बजाय अपने भीतर की प्यास तेज करने की कोशिश करता हूं जब निकल रहे हों प्राण विकल हो तेज धूप में एक घूंट जल भी तब अमृत लगता है। रचनाकाल : 9 मार्च 2025