जवानी में वरदान और बुढ़ापे में अभिशाप बनती अमरता की चाह
अमर होने की हम मनुष्यों की चाहत कोई नई बात नहीं है. हजारों साल से इसीलिए अमृत की खोज की जाती रही है. अपनी जवानी को लंबा करने के लिए बेटे की उम्र मांग लेने की राजा ययाति की पौराणिक कथा जगप्रसिद्ध है. कुछ समय पहले एक प्रसिद्ध अरबपति द्वारा बेटे का प्लाज्मा अपने शरीर में इंजेक्ट करवाने की खबर आई थी. अब अमेरिका की एक महिला ने खुलासा किया है कि वह अपनी जवानी बरकरार रखने के लिए अपने बेटे के खून का इस्तेमाल करने वाली है. हालांकि वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि इसके गंभीर स्वास्थ्य परिणाम हो सकते हैं लेकिन भोग-विलास की लालसा इतनी प्रबल है कि पागलपन थम नहीं रहा!
प्राचीन विद्वान संतुलन के महत्व को जानते थे. इसीलिए उन्होंने मानव जीवन को चार आश्रमों(भागों) में बांटा था- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास. मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानते हुए उन्होंने प्रत्येक आश्रम के लिए 25-25 वर्ष निर्धारित किए थे. शुरुआती 25 वर्ष विद्याध्ययन के बाद 25 से 50 वर्ष तक की उम्र गृहस्थाश्रम के लिए निर्धारित थी. उसके बाद अगले 25 वर्ष वह सलाहकार की भूमिका में रहता था और 75 वर्ष का होते ही संन्यास लेकर समाज की भलाई में जुट जाता था. लेकिन हमने आज जीवन को इतना कृत्रिम बना दिया है कि मरते दम तक भोग-विलास की इच्छा खत्म ही नहीं होती! जवानी को हम इतना लम्बा खींचना चाहते हैं कि बुढ़ापे को ज्यादा से ज्यादा पीछे धकेलने की कोशिश करते हैं. पुरानी पीढ़ी के लोग अपने ‘बड़प्पन’ को सहजता से स्वीकार कर लेेते थे लेकिन आज पचास-पचपन का हो जाने पर भी कोई हमें अंकल कह दे तो बुरा लगता है!
बात मन से खुद को युवा महसूस करने की नहीं है; वह तो हम मरते दम तक कर सकते हैं और करना भी चाहिए, लेकिन जब हम तन को कृत्रिम तरीके से जवान बनाए रखने की कोशिश करते हैं तो अपने बुढ़ापे का सत्यानाश कर डालते हैं और वह रोग-व्याधि से ग्रस्त हो जाता है.
कहते हैं मनुष्यों और कई अन्य जीवों की शारीरिक बनावट में 98 प्रतिशत से भी अधिक समानता होती है, फर्क सिर्फ दिमाग का ही होता है. अगर हम उनसे तुलना करें तो किसी भी मनुष्येतर जीव को आमतौर पर डॉक्टर की आवश्यकता नहीं पड़ती, कभी बीमार भी पड़े तो अपना इलाज वे खुद ही कर लेते हैं. फिर हम मनुष्यों को ही चिकित्सकों की आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्योंकि हम प्रकृति प्रदत्त सुख-सुविधाओं से संतुष्ट न रहकर कृत्रिम तरीके से भी उसे पाना चाहते हैं. चूंकि संतुलन साधना प्रकृति का नियम है, लिहाजा उतना ही दु:ख-कष्ट भी हमें बुढ़ापे में भोगना पड़ता है.
जब हम अमर होने की कामना करते हैं तो हमारी कल्पना में सिर्फ जवानी का भोग-विलास ही होता है; किसी वृद्ध से अगर हम उसकी अमर होने की ख्वाहिश के बारे में पूछें तो शायद वह इसकी कल्पना मात्र से ही डर जाएगा! आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत बताता है कि कड़ी धूप में अगर हम दो मिनट के लिए भी निकलें तो वे दो घंटे के समान लगते हैं, जबकि किसी प्रियजन के साथ दो घंटे भी बैठकर विदा लें तो लगता है कि अभी दो ही मिनट तो हुए हैं! अमर होने की जो कल्पना जवानी में वरदान की तरह लगती है, बुढ़ापे में क्या वही अभिशाप नहीं बन जाती है? तो क्यों न हम अमर होने की कामना करने के बजाय यह गीत गाते हुए खुशियां मनाएं कि ‘सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं, प्यार के दो-चार दिन!’
(19 मार्च 2025 को प्रकाशित)
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