गरिमामय जीवन
पहले मुझको यह लगता था
सब बीत चुके सतयुग, त्रेता या द्वापर युग
दुनिया में इतने बड़े हो चुके महापुरुष
हम कभी नहीं उनके कद को छू पायेंगे
दुनिया में बौने बनकर ही रह जायेंगे!
पर मिले विरासत में यदि हमें खण्डहर तो
क्या हम ही बस उसके दोषी कहलायेंगे
जो कठिन समय आया हिस्से में जीवन के
क्या उसका कोई मूल्य नहीं
झेला विनाश, फिर भी क्या सदा
विनाशक माने जायेंगे?
महसूस मगर यह होता है
इतिहास नहीं इतना निर्मम हो सकता है
कोशिश यदि हम ईमानदार कर सकें
मिले जो हिस्से में खण्डहर उन्हीं से सृजन नया कर सकें
भले वह नजर न आये भव्य महल
संघर्षों की गाथा के लेकिन शिलालेख बन जायेंगे
टूटे-फूटे ही सही मगर
अपनी नजरों में कम से कम गरिमामय तो बन पायेंगे!
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