याचक की दीनता का दु:ख और दाता के स्वाभिमान का सुख

 मध्यप्रदेश के मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल का यह कहना कि ‘लोगों को सरकार से भीख मांगने की आदत पड़ गई है’ चुभता तो बहुत है लेकिन यह हमारे वर्तमान समय की दु:खद सच्चाई है. लोगों को मुफ्त की चीजों का ऐसा नशा चढ़ता जा रहा है कि डर लगता है हमारा देश कहीं आलसियों और मुफ्तखोरों का समाज बनकर ही न रह जाए! लेकिन पटेल यह बात छुपा ले गए कि लोगों को मुफ्तखोर बना कौन रहा है. ऐसा नहीं है कि लोग काम करना नहीं चाहते, लेकिन सरकारों को रोजगार देने की अपनी नाकामी को छुपाने के लिए सरकारी खजाने को लुटाना ही चुनाव जीतने का सबसे आसान उपाय लगता है. जबकि लोगों को यही पैसा अगर मनरेगा जैसी सार्थक परियोेजनाओं का विस्तार करके, काम के बदले दिया जाता तो उनको वह अपनी मेहनत की कमाई लगती.

बहरहाल, मंत्री पटेल ने यह कहकर पूरे समाज को आईना दिखाया है कि ‘भिखारियों की फौज इकट्ठा करना समाज को मजबूत नहीं करता, बल्कि उसे कमजोर करता है.’ कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति खुद को ‘भिखारी’ कहे जाने से तिलमिला जाएगा, लेकिन शर्मिंदगी से बचने के लिए अगर हम हकीकत को झुठलाने की कोशिश करेंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे. 

हकीकत वैसे यह भी है कि मुफ्त जैसी कोई चीज नहीं होती, देर-सबेर हर चीज की कीमत चुकानी ही पड़ती है, जैसे जेलेंस्की के यूक्रेन को रेयर अर्थ मिनरल्स के रूप में ट्रम्प के अमेरिका को चुकानी पड़ रही है. फर्क बस यह है कि मजबूरीवश चुकाने पर ब्याज के रूप में स्वाभिमान भी खोना पड़ता है. जिस तरह हम परछाईं से दूर भागें या उसके पीछे, उसकी हमसे दूरी हमेशा एक समान रहती है, वैसे ही संघर्षों से हम भागने की कोशिश करें या उनका सामना करें, परेशानियां हमें दोनों स्थितियों में एक जैसी ही झेलनी पड़ती हैं, बस सामना करने में हमारा स्वाभिमान बचा रहता है. जैसा कि मंत्री प्रहलाद पटेल ने भी कहा, ‘लोगों को देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों से सीख लेने की जरूरत है.’ 

दरअसल हम मनुष्यों का स्वभाव ही भीड़ के पीछे भागने का होता है. जब हम देखते हैं कि लगभग सारे लोग लेने के पीछे भाग रहे हैं तो हमें लगता है कि हम ही क्यों चूक जाएं! देश की आजादी के आंदोलन के समय लेने नहीं बल्कि देने की होड़ थी, इसलिए लोगों में अपना सबकुछ उत्सर्ग कर देने की भावना थी. यह सच है कि देने का उदाहरण सामने रखने वाला कोई बड़ा नेता हो तो उसके पीछे चलना आसान हो जाता है, जैसे कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी थे. दुर्भाग्य से आज हमारे सामने ऐसे नेता हैं जो देने नहीं, लेने में विश्वास रखते हैं. वे सरकारी खजाना भी लुटाते हैं तो वोट लेने की खातिर. इसलिए उनके पीछे चलने वाली जनता भी लेने की दौड़ में शामिल है. जिस दिन लोगों को देने के सुख की एक झलक भर भी मिल जाएगी, उन्हें अपनी दौड़ की दिशा बदलते देर नहीं लगेगी. सवाल यह है कि उन्हें यह झलक दिखाए कौन? 

तो क्या हमें महात्मा गांधी जैसे किसी नेता के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए? यह सच है कि हर युग का अपना एक नायक होता है, जैसे त्रेतायुग में राम थे और द्वापर में कृष्ण. लेकिन सतयुग में कोई नायक नहीं था, क्योंकि सब अपना कर्तव्य जानते थे और स्वधर्म का पालन करते थे (दरअसल अपूर्ण समाज में ही किसी नायक की आवश्यकता होती है, परिपूर्ण समाज में नहीं). आज अगर हमारे सामने कोई नायक नहीं है तो क्या हम सतयुग का अनुसरण कर खुद को परिपूर्ण नहीं बना सकते?  


(5 मार्च 2025 को प्रकाशित)

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