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Showing posts from March, 2024

सुखी जीवन का मंत्र

मैं नहीं चाहता था कि भयावह अतल घाटियों में भटकूं लेकिन यह इच्छा थी कि शिखर तक भी पहुंचूं यह काम असंभव जैसा था जितना ऊंचा होता जाता है पेड़ जड़ें उतनी ही गहरी जाती हैं मजबूत नींव के बिना नहीं संभव है आलीशान इमारत बन पाना। इसलिये सुखी रह पाने की खातिर हरदम कुछ ऐसा मैंने ढंग निराला खोज लिया मन ही मन सारी पीड़ा को सह लेता हूं बाहर कायम रह सके ताकि सुख-शांति झेलना पड़े न कोई असहनीय आघात सभी को होता है किस्मत पर मेरी रश्क छुपा लेता हूं मैं अपने सारे दु:ख-दर्द जड़ें जब तक मिट्टी में दबी रहेंगी पोषण पाकर वृक्ष फले-फूलेगा जिस दिन मिट्टी हट जायेगी जड़ की क्षमता तो जायेगी दुनिया जान मगर जो दिखता आलीशान वृक्ष वह बिना जड़ों के जमींदोज हो जायेगा। रचनाकाल : 26-28 मार्च 2024

त्यौहार

पकवान नहीं बन पाते थे जब रोज-रोज कपड़े जब आते नये, साल में एक रोज हम बच्चों को तब इंतजार रहता था पूरे साल दिवाली-होली का। जब फसल लहलहाने लगती थी खेतों में आमों की, महुआ फूलों की भीनी खुशबू जब सुबह-सुबह भर जाया करती नथुनों में फागुन का तब उल्लास गीत बन कर लोगों के अनायास ही होठों पर आ जाता था। कब बीत गई वह बाली उमर, पता न चला हैरत का कोई पार न था जब जाना यह कई लोग खून की होली भी खेला करते हैं दुनिया में जिन महुआ फूलों को हम बच्चे बीना करते सुबह-सुबह हलछठ पर जो पूजा जाता, बनते जिससे पकवान कई बस-ट्रेनों में प्रतिबंधित है मादक पदार्थ के वह शक में तब अर्थ बदलने लगे सभी चीजों के बचपन से जवान होते मन में। त्यौहार सभी तो अब भी मैं पहले की तरह मनाता हूं  मन ही मन लेकिन डरता हूं लगता है वे भीतर से मरते जाते हैं  बचपन के जैसे जिंदादिल महसूस नहीं हो पाते हैैं! मेरे पर बड़े-बुजुर्गों ने जिस तरह मुझे संस्कार दिया मैं भी कोशिश करता हूं अपने कर्मों से शब्दों के अर्थों को फिर निर्मल करने की तन-मन में जो बढ़ रहा प्रदूषण सबके, उसे मिटाने की त्यौहार ताकि उजले फिर लगने लगें कि यदि मर जायेंगे त्यौहार उन्हीं के

धर्म और विज्ञान

मैं चकित बहुत ही होता था लोगों को करते देख दण्डवत परिक्रमा या पूरी करते अन्य कष्टप्रद मनौतियां जो मनोकामना पूरी होने पर करते थे आस्तिक या श्रद्धालु लोग। मैं नहीं सहारा लेता था ईश्वर का पर जब मिले कष्ट घनघोर मुझे तब सहसा यह महसूस हुआ ईश्वर के ऊपर रखता जो विश्वास कष्ट सहने की उसको सचमुच में ही ताकत मिलती जाती है। इसलिये मनौती माना करता मैं भी अब पूरी करवानी होती मनोकामना जब हफ्ते में व्रत-उपवास एक दिन रखता हूं आती जब कोई विपदा या आपदा किसी अपने उसको अपराधों का फल मान स्वयं को निर्मल करने की अधिकाधिक कोशिश करने लगता हूं। है मुझे पता उपवासों का फल कोई और मिले न मिले सेहत की खातिर रखना व्रत हरदम अच्छा ही होता है चाहे जिस किसी बहाने से अपने दोषों को दूर अगर हम कर पायें उससे विकास ही होता है। इसलिये दृष्टि रखकर भी अपनी वैज्ञानिक धर्मों की अच्छी बातों को अपनाता हूं पड़ता हूं नहीं व्यर्थ के वाद-विवादों में चाहे जिस किसी तरीके से हो सकता हो खुद का विकास मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के राहें वह सब अपनाता हूं। रचनाकाल : 19-20 मार्च 2024

प्रतिदान

कुछ लोग मिले थे जीवन में नि:स्वार्थ जिन्होंने मुझसे प्रेम अथाह किया करके समाज की सेवा मैं अनवरत अक्षय वह कर्ज उतारा करता हूं। कविता लिखना जब शुरू किया सोचा था जीवन-यापन का जरिया होगी मन को समृद्ध बनाया पर इसने इतना अब स्वार्थ साधने में लज्जा सी होती है। जिन दु:ख-तकलीफों की खातिर ईश्वर को कोसा करता था उन कष्टों ने ही मांज-मांज कर इतना मुझको चमकाया अब स्वेच्छा से दु:ख सह ईश्वर से माफी मांगा करता हूं। रचनाकाल : 15 मार्च 2024

संस्कार

कामना नहीं कुछ मन में थी बस यूं ही शीश झुकाया करता था मैं ईश्वर के आगे बदले में कुछ प्रतिदान न चाहा कभी मगर बहुत दिनों के बाद बात यह पता चली ईश्वर ने इसके बदले ही अभिमान हर लिया सब मेरा! कुछ नहीं विशेष प्रयोजन था करने का पूजा-पाठ मगर संस्कारों के ही वश हो मैं कुछ देर भजन कर लेता था जब बिगड़ रही थी लेकिन हवा जमाने की सहसा मुझको अहसास हुआ मेरे इन संस्कारों ने ही मेरे बच्चों को बचा लिया! कुछ अर्थ न खास समझता था फिर भी पुरखों की बात मान भगवद्गीता का पाठ रोज कर लेता था जीवन में लेकिन संकट आये बड़े-बड़े महसूस हुआ तब सम्बल इससे मन को मेरे बहुत मिला। जो राह दिखाई मुझे महापुरुषों ने उस पर नहीं समझने पर भी मैं श्रद्धावश चलता रहा अंतत: लेकिन मुझको फल अच्छा ही मिला कभी भी निर्मल मन से किये हुए अच्छे कर्मों ने धोखा मुझको नहीं दिया। अनपढ़ या भोले भले रहे हों पुरखे मेरे भारत के खुद भले ठगे जायें पर औरों को न कभी वे ठगते थे तुलसी-पीपल या पत्थर को भी देव मानकर सबकी पूजा करते थे उनकी बोई वह फसल मुझे तो फलीभूत दुनिया की तुलना में भारत के संस्कारों में दिखती है। रचनाकाल : 6-7 मार्च 2024

नानी

समय जितनी तेजी से बदलता है, क्या यादें भी उतनी ही तेजी से सुनहरी होती जाती हैं? 40-42 साल का समय इतना लंबा अरसा तो नहीं होता कि स्मृतियां नॉस्टैल्जिक लगने लगें! लेकिन पिछले हफ्ते नानी के देहावसान के बाद से बचपन के दिन जैसे दूसरी दुनिया के ही महसूस होने लगे हैं, जब हम (मैं और दो बरस बड़ी बहन सुनीता) नानी के गांव में पढ़ा करते थे. नानी का वह कठोर अनुशासन दस-बारह बरस की उस अवस्था में कैसा महसूस होता होगा,  यह तो याद नहीं लेकिन उसकी यादें आज अवश्य रोमांचित करती हैं. नानी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, उनके जन्म का साल-महीना किसी को पता नहीं, पर मरते समय सौ से दस-पांच बरस ऊपर ही रही होंगी, इसमें किसी को शक नहीं. हमें लेकिन चालीस बरस पहले भी उनका चेहरा लगभग ऐसा ही नजर आता था. पिछले काफी समय से नौकरी की व्यस्तता के चलते शहर से गांव जाकर उनसे मिलना साल में एकाध बार ही हो पाता था. उनकी श्रवणशक्ति भले ही कमजोर हो गई हो, नजरें और याददाश्त उतनी ही तेज थी. पुरानी यादों का पिटारा लेकर बैठ जातीं और पश्चाताप करतीं कि मैंने तुम दोनों को बहुत मारा है! मैं समझाता कि मारा नहीं, गढ़ा है; पर वे अपनी ही धुन में रहतीं.

जिद

चाहता हूं रखूं खुद को इतना अधिक अनुशासित रखते जितना खुद को सभी चांद-सितारे-सूरज करते विलंब नहीं कभी एक पल को भी। एक-एक क्षण का पर रखने के चक्कर में हिसाब मैं इतना थक जाता हूं तबियत खराब ही हो जाती है दिनचर्या हो जाती ध्वस्त सारी तहस-नहस हो जाता अनुशासन। लेता है जन्म लेकिन मरकर भी बार-बार फीनिक्स पक्षी जैसे अपनी ही राख से चाहता हूं मैं भी उठूं गिरकर भी बार-बार कि असली पराजय नहीं होती है हारना मान लेना हार लेकिन सबसे बुरा होता है दीपक की लौ की तरह ऊंचा रहे मस्तक हर हाल में तो रसातल में रहकर भी जीना सफल होता है। रचनाकाल : 3 मार्च 2024