जिद


चाहता हूं रखूं खुद को
इतना अधिक अनुशासित
रखते जितना खुद को सभी
चांद-सितारे-सूरज
करते विलंब नहीं
कभी एक पल को भी।
एक-एक क्षण का पर
रखने के चक्कर में हिसाब मैं
इतना थक जाता हूं
तबियत खराब ही हो जाती है
दिनचर्या हो जाती ध्वस्त सारी
तहस-नहस हो जाता अनुशासन।
लेता है जन्म लेकिन
मरकर भी बार-बार
फीनिक्स पक्षी जैसे
अपनी ही राख से
चाहता हूं मैं भी उठूं
गिरकर भी बार-बार
कि असली पराजय नहीं
होती है हारना
मान लेना हार लेकिन
सबसे बुरा होता है
दीपक की लौ की तरह
ऊंचा रहे मस्तक हर हाल में
तो रसातल में रहकर भी
जीना सफल होता है।
रचनाकाल : 3 मार्च 2024

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