त्यौहार
पकवान नहीं बन पाते थे जब रोज-रोज
कपड़े जब आते नये, साल में एक रोज
हम बच्चों को तब इंतजार रहता था
पूरे साल दिवाली-होली का।
जब फसल लहलहाने लगती थी खेतों में
आमों की, महुआ फूलों की भीनी खुशबू
जब सुबह-सुबह भर जाया करती नथुनों में
फागुन का तब उल्लास गीत बन कर लोगों के
अनायास ही होठों पर आ जाता था।
कब बीत गई वह बाली उमर, पता न चला
हैरत का कोई पार न था जब जाना यह
कई लोग खून की होली भी खेला करते हैं दुनिया में
जिन महुआ फूलों को हम बच्चे बीना करते सुबह-सुबह
हलछठ पर जो पूजा जाता, बनते जिससे पकवान कई
बस-ट्रेनों में प्रतिबंधित है मादक पदार्थ के वह शक में
तब अर्थ बदलने लगे सभी चीजों के
बचपन से जवान होते मन में।
त्यौहार सभी तो अब भी मैं
पहले की तरह मनाता हूं
मन ही मन लेकिन डरता हूं
लगता है वे भीतर से मरते जाते हैं
बचपन के जैसे जिंदादिल महसूस नहीं हो पाते हैैं!
मेरे पर बड़े-बुजुर्गों ने
जिस तरह मुझे संस्कार दिया
मैं भी कोशिश करता हूं अपने कर्मों से
शब्दों के अर्थों को फिर निर्मल करने की
तन-मन में जो बढ़ रहा प्रदूषण सबके, उसे मिटाने की
त्यौहार ताकि उजले फिर लगने लगें
कि यदि मर जायेंगे त्यौहार
उन्हीं के साथ हमारी मानवता मर जायेगी।
रचनाकाल : 25 मार्च 2024
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