नानी
समय जितनी तेजी से बदलता है, क्या यादें भी उतनी ही तेजी से सुनहरी होती जाती हैं? 40-42 साल का समय इतना लंबा अरसा तो नहीं होता कि स्मृतियां नॉस्टैल्जिक लगने लगें! लेकिन पिछले हफ्ते नानी के देहावसान के बाद से बचपन के दिन जैसे दूसरी दुनिया के ही महसूस होने लगे हैं, जब हम (मैं और दो बरस बड़ी बहन सुनीता) नानी के गांव में पढ़ा करते थे. नानी का वह कठोर अनुशासन दस-बारह बरस की उस अवस्था में कैसा महसूस होता होगा, यह तो याद नहीं लेकिन उसकी यादें आज अवश्य रोमांचित करती हैं.
नानी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, उनके जन्म का साल-महीना किसी को पता नहीं, पर मरते समय सौ से दस-पांच बरस ऊपर ही रही होंगी, इसमें किसी को शक नहीं. हमें लेकिन चालीस बरस पहले भी उनका चेहरा लगभग ऐसा ही नजर आता था. पिछले काफी समय से नौकरी की व्यस्तता के चलते शहर से गांव जाकर उनसे मिलना साल में एकाध बार ही हो पाता था. उनकी श्रवणशक्ति भले ही कमजोर हो गई हो, नजरें और याददाश्त उतनी ही तेज थी. पुरानी यादों का पिटारा लेकर बैठ जातीं और पश्चाताप करतीं कि मैंने तुम दोनों को बहुत मारा है! मैं समझाता कि मारा नहीं, गढ़ा है; पर वे अपनी ही धुन में रहतीं.
आज सोचता हूं तो घनघोर आश्चर्य होता है कि उन्होंने मारा तो कभी था ही नहीं! मारने के लिए डंडा तो दूर, हाथ तक कभी नहीं उठाया! हां, उनका डंडा और जबान डराते अवश्य बहुत थे. अनपढ़ होने पर भी नानी को लगता था कि बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा हातिमताई जैसी किताबें हम बच्चों को नहीं पढ़नी चाहिए. पर हमें तो मजा ही ऐसी किताबें पढ़ने में आता था! नानी के डर से अटारी के नीम अंधेरे कोने में बैठे जब हम पढ़ रहे होते तो नानी को पता नहीं कैसे पता चल जाता और वे अपनी लाठी ठकठकाती, चिल्लाती पहुंच जातीं. हमारी तो जैसे जान ही सूख जाती और अंदाजा लगाने लगते कि नानी के किस बगल से तेजी से भागकर नीचे उतरा जा सकता है!
दिसंबर-जनवरी की ठंड के वे दिन तो आज भी रोमांचित कर देते हैं, जब तड़के चार बजे (और परीक्षा के दिनों में तो साढ़े तीन बजे ही) नानी हमें पढ़ने के लिए उठा देती थीं. बिस्तर में रजाई ओढ़कर पढ़ने का नाटक करते हुए हम जैसे ही झपकी लेने की कोशिश करते, भजन गाती नानी की डांट झट से कानों में पड़ती. एक बार तो ऐसे ही ऊंघते समय नानी ने देख लिया कि लालटेन को धक्का लग गया है, और उस दिन से हमारा बिस्तर पर बैठकर लिखना-पढ़ना बंद! इक्का-दुक्का संपन्न घरों में तब तक बिजली आ चुकी थी और जाड़े की उन रातों में चटाई पर बैठकर पढ़ते हम सोचते कि काश! बिजली मिल जाती तो हम सारी रात बिस्तर पर बैठ कर पढ़ लेते और नानी को कलेक्टर-मजिस्ट्रेट बनकर दिखा देते!
कहते हैं नेहरूजी ने देश की आजादी के बाद ‘आराम हराम है’ का नारा दिया था. नानी ने क्या उसी नारे से प्रेरणा ली थी? वह खुद न कभी आराम करती थीं, न करने देती थीं. घर के सामने ही खलिहान होती थी तो कभी धान, कभी गेहूं के बीज इधर-उधर बिखरे ही रहते थे. नानी जब भी हमें खाली देखतीं, उन्हें बीनने में लगा देतीं. क्या उन्होंने ‘खाली दिमाग शैतान का घर’ वाली कहावत सुन रखी थी? ‘खटिया खड़ी होना’ अब भले ही मुहावरा बन चुका हो, लेकिन हम इसके वास्तविक अर्थों के भुक्तभोगी हैं. बिस्तर समेटकर सारी खटियाएं सुबह खड़ी कर दी जाती थीं और मजाल है कि शाम ढलने के पहले कोई उन्हें बिछा ले! खटिया बिछेगी ही नहीं तो दिन में कोई आराम ही कैसे कर पायेगा! हां, मेहमान अवश्य इसके अपवाद थे और वे दिन भर खाट तोड़ते पड़े रह सकते थे. उन दिनों घर में कोई न कोई अतिथि बना ही रहता था. हफ्ते-दस दिन आम बात थी, कई मेहमान तो महीनों बसेरा करते थे. पर नानी के चेहरे पर कभी कोई शिकन न आती थी. अतिथि सत्कार का उनके लिए भजन-पूजन से कम महत्व नहीं था.
नानी के इस तरह ठोंक-पीटकर गढ़ने का ही प्रताप है कि आज जितना मानसिक श्रम कर लेता हूं, उतना ही शारीरिक परिश्रम भी. पढ़ाई के तनाव से आज विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की खबरें सुनता हूं तो लगता है कि नानी जैसे शिक्षक उन्हें बचपन में मिलते तो क्या वे इतने कमजोर हो पाते! नानी गीता नहीं पढ़ सकती थीं, पर वे वास्तविक अर्थों में कर्मयोगी थीं और मुझे भी अपने कर्मों से उन्होंने वही सिखाया. पर समय बदल रहा है और यह जितनी तेजी से बदलेगा, नानी जैसे लोग उतनी ही तेजी से किसी और दुनिया के महसूस होते जायेंगे ! ...अलविदा नानी !!
रचनाकाल : 4 मार्च 2024
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