संस्कार


कामना नहीं कुछ मन में थी
बस यूं ही शीश झुकाया करता था मैं ईश्वर के आगे
बदले में कुछ प्रतिदान न चाहा कभी मगर
बहुत दिनों के बाद बात यह पता चली
ईश्वर ने इसके बदले ही अभिमान हर लिया सब मेरा!

कुछ नहीं विशेष प्रयोजन था करने का पूजा-पाठ मगर
संस्कारों के ही वश हो मैं कुछ देर भजन कर लेता था
जब बिगड़ रही थी लेकिन हवा जमाने की
सहसा मुझको अहसास हुआ
मेरे इन संस्कारों ने ही मेरे बच्चों को बचा लिया!

कुछ अर्थ न खास समझता था
फिर भी पुरखों की बात मान
भगवद्गीता का पाठ रोज कर लेता था
जीवन में लेकिन संकट आये बड़े-बड़े
महसूस हुआ तब सम्बल इससे मन को मेरे बहुत मिला।

जो राह दिखाई मुझे महापुरुषों ने उस पर
नहीं समझने पर भी मैं श्रद्धावश चलता रहा
अंतत: लेकिन मुझको फल अच्छा ही मिला
कभी भी निर्मल मन से किये हुए
अच्छे कर्मों ने धोखा मुझको नहीं दिया।

अनपढ़ या भोले भले रहे हों पुरखे मेरे भारत के
खुद भले ठगे जायें पर औरों को न कभी वे ठगते थे
तुलसी-पीपल या पत्थर को भी देव मानकर सबकी पूजा करते थे
उनकी बोई वह फसल मुझे तो फलीभूत
दुनिया की तुलना में भारत के संस्कारों में दिखती है।
रचनाकाल : 6-7 मार्च 2024

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक