निहित स्वार्थों की जंग का खामियाजा भुगतती जनता
पंचतंत्र में एक कहानी है कि गीदड़ दमनक जब बैल संजीवक और सिंह पिंगलक की दोस्ती से खुद को उपेक्षित महसूस करने लगा तो उसने उनमें फूट डालने की कोशिश की. एक तरफ तो उसने पिंगलक से कहा कि संजीवक उसका राज्य हड़पने की योजना बना रहा है, दूसरी तरफ संजीवक को भड़काया कि जंगल का राजा उसे मारकर खा जाना चाहता है. नतीजतन, गलतफहमी के शिकार दोनों मित्रों का जब आमना-सामना हुआ तो उनकी आंखें क्रोध से लाल थीं और नथुने फूले हुए थे. एक-दूसरे को देखकर उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि सियार दमनक ने बिल्कुल सही कहा था और वे बिना सोचे-विचारे ही एक-दूसरे पर टूट पड़े.
ईरान और इजराइल के बीच इन दिनों भीषण युद्ध छिड़ा हुआ है. ईरान कहता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों (बिजली आदि) के लिए है तो दूसरी ओर इजराइल को लगता है कि इसके बहाने ईरान परमाणु हथियार बना रहा है, जो उसके (इजराइल के) अस्तित्व को ही खतरे में डाल देंगे. मजे की बात यह है कि हम जैसी धारणा बना लेते हैं, चीजें हमें वैसी ही नजर आने लगती हैं. जैसे हम मनुष्य सांप से डरते हैं और सांप हम मनुष्यों से तथा मौका पाते ही दोनों पहले वार करना चाहते हैं, वैसे ही भयभीत ईरान और इजराइल एक-दूसरे को नष्ट कर देना चाहते हैं.
बहुत दिन नहीं बीते जब डोनाल्ड ट्रम्प और एलन मस्क के बीच गाढ़ी दोस्ती हुआ करती थी. ट्रम्प को अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित करवाने के लिए खरबपति मस्क ने पानी की तरह पैसा बहाया था. लेकिन कुछ माह के भीतर ही वह दोस्ती अब गाढ़ी दुश्मनी में बदलती दिख रही है.
अपने निहित स्वार्थों के लिए जब दो घनिष्ठ मित्र इतनी जल्दी कट्टर दुश्मन में बदल सकते हैं तो देशहित को ध्यान में रखकर दो दुश्मन देश मित्र क्यों नहीं बन सकते? सब जानते हैं कि जंग में दोनों पक्षों का ही नुकसान होता है और मिल-जुल कर रहने से ही समृद्धि आती है.
कुछ लोग लड़ाइयों के लिए सभ्यताओं के टकराव को जिम्मेदार मानते हैं लेकिन सच तो यह है कि सभ्यताओं से ज्यादा यह हमारे अहं के टकराव की लड़ाई है. हाल ही में यूरोप की यात्रा पर गए हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर से किसी विदेशी पत्रकार ने पूछा कि ‘क्या ट्रम्प भरोसे के लायक हैं?’ तो जयशंकर का जवाब था कि ‘भारत के लिए अमेरिका के साथ संबंध बहुत अहम हैं और यह किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं है.’
पुराने जमाने में सचमुच ऐसा ही होता था. विदेशी संबंधों में एक निरंतरता रहती थी, राष्ट्र प्रमुखों का व्यक्तित्व इसमें आड़े नहीं आता था. दुर्भाग्य से आज के दौर के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती. चाहे वे पुतिन हों, जेलेंस्की हों, ट्रम्प या खामेनेई- एकमात्र व्यक्ति पूरे देश का भाग्य निर्धारित करने लगा है. शायद इसीलिए पुतिन को लगता है कि जेलेंस्की को हटाने से और ट्रम्प को लगता है कि खामेनेई को हटाने से युद्ध रुक जाएगा!
लड़ाई में हमेशा आम लोग ही मारे जाते हैं, चाहे वे सैनिक के रूप में हों या नागरिक के रूप में. सत्ताधीश तो हारने के बाद भी अच्छी-खासी दौलत समेट कर सुरक्षित देशों में भाग जाते हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि युद्ध के लिए जनता को भड़काना सबसे आसान होता है और ऐसा करने वाले को ही वह नायक समझती है.
शांति के लिए प्रयास करने वालों और इसके लिए अपने निहित स्वार्थों या निजी अहंकार तक का त्याग करने वालों को हम अपना नायक कब समझेंगे?
(18 जून 2025 को प्रकाशित)
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