मध्यम वर्ग

थी बहुत पुरानी इच्छा सैर-सपाटे की
आकर्षित करते थे पहाड़, जंगल, नदियां
फुर्सत ही लेकिन नहीं कभी भी मिल पाई
नौकरी हमेशा करते जीवन बीत गया
आना-जाना बस गांव-शहर ही लगा रहा।

सोचा था जब नौकरी खत्म हो जायेगी
लौटूंगा अपने गांव, संवारूंगा उसको
पर नहीं शहर से कभी रिटायर हो पाया
कम्बल समझा था जिसे, उसी ने भालू जैसा जकड़ लिया
सेवा करना अम्मा-बाबू की सपना ही बस बना रहा।

आती थी भरकर रेल गांव से रोज, मगर
बीमारी से लाचार लोग ही दवा कराने आते थे
हसरत होती थी उन्हें, शहर में उनका भी इक घर होता
जीवन की अपनी सारी लगा जमा-पूंजी
जब प्लॉट कहीं वे ले लेते, हिम्मत मेरी भी नहीं लौटने की होती।

बस इसी कशमकश में ही जीवन गुजर गया
सपना था जो वह सपना ही बस बना रहा
सिलसिला न जाने चला आ रहा है कब से
कम्बल छोटा है, सिर ढकने पर पैर उघड़ ही जाता है
क्या इसी त्रासदी में ही मध्यम वर्ग हमेशा जीता है!

रचनाकाल : 06-09 जून 2025

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