परम्परा : पुरानी ढहने और नई निर्मित नहीं होने की त्रासदी
नशा किसी भी चीज का हो, बच्चों को वह बहुत जल्दी चपेट में लेता है, ठीक उसी तरह जैसे छोटी उम्र में किसी को कुछ सिखाना बड़ों की तुलना में बहुत आसान होता है. शायद बड़े होनेे के साथ-साथ आदमी लचीलापन खोता जाता है, जबकि बचपन मिट्टी के लोंदे के समान होता है, जिसे कुशल कुम्हार मनचाहा आकार दे सकता है.
इसीलिए बच्चों को मोबाइल और नशे से दूर रखने के लिए केरल के पत्तनमिट्टा जिले की नेदुंबपुरम ग्रामपंचायत ने ‘कुट्टीकेयर’ नामक जो अनोखी मुहिम शुरू की है, वह देश के सभी गांवों को दिशा दिखा सकती है. इस मुहिम के अंतर्गत गांव के आठवीं से बारहवीं कक्षा तक के बच्चे वहां के बीमार और बुजुर्ग लोगों से मिलते हैं और उन्हें हिम्मत बंधाते हैं कि वे जल्दी ठीक हो जाएंगे. बदले में उन्हें बुजुर्गों के अनुभव से ऐसी-ऐसी बातें सीखने को मिलती हैं जो किताबों में नहीं मिल सकतीं. इंदौर और पुणे में भी कहते हैं बच्चों की स्मार्टफोन की लत छुड़ाने के लिए इसी तरह के रचनात्मक प्रयास किए जा रहे हैं.
ग्रामीण परिवेश से संबंध रखने वाले पुरानी पीढ़ी के लोगों को पता होगा कि पहले स्कूलों में शनिवार का दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए निर्धारित होता था, जिसमें छात्र अपनी प्रतिभा का जौहर दिखाते थे. रामचरित मानस की चौपाइयों पर आधारित अंत्याक्षरी होती थी, जिसमें जीतने के लिए बच्चों में चौपाइयां याद करने की होड़ लगी रहती थी. सुलेख प्रतियोगिता में प्रथम आने वाले तीन बच्चों को इनाम दिया जाता था. परीक्षा में एक विषय कृषि कार्यों से संबंधित होता था जिसमें छात्रों को जूट की रस्सी, बढ़नी(एक प्रकार की झाड़ू) जैसी चीजें अपने हाथों से बनाकर लानी होती थीं और छात्राओं को अपनी पाक कला का नमूना पेश करना होता था, जिसके आधार पर अंक दिए जाते थे. स्कूल के विस्तृत परिसर का एक हिस्सा बागवानी के लिए निर्धारित होता था, जिसमें शिक्षकों के मार्गदर्शन में विद्यार्थी अपनी छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर फल-सब्जियां उगाना सीखते थे. कुल मिलाकर बच्चों को एक आदर्श मनुष्य और बेहतरीन किसान बनने के लिए तैयार किया जाता था.
यह उन दिनों की बात है जब भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता था. औद्योगीकरण के प्रयास हालांकि देश में आजादी के बाद से ही शुरू हो गए थे लेकिन उसे गति पकड़ने में कई दशकों का समय लगा. परंतु जब उसने लहर का रूप धारण किया तो उसकी आंधी में गांवों की हजारों साल पुरानी परम्पराएं छिन्न-भिन्न हो गईं और गांव आज जिस तरह से शहरों की भौंडी नकल बनते जा रहे हैं, वह किसी से छिपा नहीं है.
औद्योगिक क्रांति ने पुरानी परम्पराओं को तो नष्ट-भ्रष्ट कर दिया लेकिन तकनीकी विकास इतनी तेजी से हुआ कि दुर्भाग्य से हमें उसे विनियमित करने का समय नहीं मिल सका. इसीलिए जो स्मार्टफोन हमारे लिए वरदान बन सकता था, बच्चों के हाथ में पड़कर वह अभिशाप बनता जा रहा है. पेट्रोलियम पदार्थों समेत जो खनिज संसाधन मानव सभ्यता के विकास के लिए लम्बी छलांग साबित हो सकते थे, स्वनियंत्रण के अभाव में वे पर्यावरण प्रदूषण के रूप में हमारे अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गए हैं.
बेशक परम्पराएं एक-दो दिन, महीने या साल में स्थापित नहीं हुई हैं, इसके लिए लम्बा समय लगा है, लेकिन जिस तेजी से हमने पुरानी परम्पराओं को ढहाया है, उतनी ही तेजी से आज नई परम्पराएं बनाने की भी जरूरत है. पुराने जमाने में यातायात की बैलगाड़ी जैसी गति के कारण नये-नये आविष्कारों की जानकारी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने में काफी समय लगता था, जबकि आज जेट विमानों के युग में कोई भी खबर पलक झपकते ही दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाती है.
इसीलिए केरल के नेदुंबपुरम गांव या इंदौर और पुणे जैसी अभिनव पहल जहां कहीं भी हो, हमें उसे बुलेट ट्रेन की रफ्तार से पूरे देश में फैलाने की जरूरत है, तभी मानव सभ्यता को अपने ही बोझ से चरमराने से बचाया जा सकेगा.
(21 मई 2025 को प्रकाशित)
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