सिर्फ लेने में ही नहीं, देने में भी मिलता है अनुपम सुख

 दुनिया में लेने का सुख तो सब जानते हैं, पर ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोगों को देने में भी खुशी मिलती है? 

कर्नाटक के कोडगु जिले के कुशल नगर कस्बे में 72 वर्षीय ऑटो चालक गुलजार बेग अपने ऑटो में हमेशा तसला-फावड़ा रखते हैं और सवारी लाने-ले जाने के दौरान सड़क पर जहां भी गड्ढा दिखता है उसे भरने लगते हैं. यह काम वे पिछले 51 साल से करते आ रहे हैं और अब तक 60 हजार से ज्यादा गड्ढे भर चुके हैं. दरअसल 1974 में गड्ढों की वजह से जब उन्हें पीठ दर्द शुरू हो गया तो नगर पालिका में शिकायत की, लेकिन अधिकारियों से जब फंड की कमी का रोना सुनने को मिला तो उन्होंने खुद ही फावड़ा उठा लिया. 

फरीदाबाद की संस्था ‘द डिवाइन मिशन’ से जुड़े लोग वीकएंड में छुट्टियां मनाने या मौजमस्ती के बजाय गरीब और असहाय लोगों की मदद करते हैं. वर्ष 2007 में शुरू हुई इस संस्था से जुड़े लोगों में कोई वकील है तो कोई सीए, कोई बैंक मैनेजर है तो कोई बिल्डर, साइंटिस्ट, इंजीनियर, डॉक्टर, किसी कंपनी के सीईओ या डायरेक्टर. यानी सभी पढ़े-लिखे और प्रोफेशनल लोग हैं. खुद उसके संस्थापक राजकुमार फूड साइंटिस्ट हैं. छुट्टियों के दिन ये गरीबों की बस्तियों में उन्हें खाने का सामान पहुंचाने, नि:शुल्क शिक्षा, कपड़े आदि जैसी चीजों में सहायता करते हैं और उन्हें मेडिकल सुविधा भी उपलब्ध कराते हैं.  

देने की या परोपकार की यह भावना कोई नई बात नहीं है. प्राचीनकाल से ही हमें ऐसे लोगों के उदाहरण मिलते हैं. ऋषि दधीचि ने देवराज इंद्र के मांगने पर अपने शरीर की हड्डियां तक दान कर दी थीं. राजा बलि ने अपना शरीर दे दिया, कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दिए, राजा हरिश्चंद्र, शिबि, राजा रघु जैसे अंतहीन नाम हैं दानवीरों की सूची में. वर्तमान में ऐसे दानवीरों की संख्या कम जरूर हो गई है लेकिन पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. जमशेदजी टाटा, वॉरेन बफेट, बिल गेट्‌स, अजीम प्रेमजी जैसे नाम उसी परंपरा में आते हैं. सवाल यह है कि सुख आखिर लेने में मिलता है या देने में? क्या सारे लोग परलोक में सुख मिलने के लालच में ही दान-पुण्य करते हैं?

पिछले दिनों जारी वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2024 के मुताबिक असली खुशी पैसे या ऊंची सैलरी से नहीं बल्कि दयालुता और दूसरों की मदद करने से मिलती है. विशेषज्ञों का कहना है कि दयालुता और परोपकार के छोटे-छोटे कार्य भी किसी भी व्यक्ति की खुशी को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं.

हकीकत शायद यह है कि सुख हमें लेने में भी मिलता है और देने में भी; बस दोनों की तासीर अलग-अलग होती है. दरअसल ईश्वर ने प्रत्येक चीज की रचना ही कुछ इस तरह से की है कि उससे निचले दर्जे का सुख भी मिल सकता है और ऊंचे दर्जे का भी. जैसे हमारी जीभ को खट्टी-मीठी या चटपटी चीजें अच्छी लगती हैं लेकिन जब हम यह जानकर संयम बरतते हैं कि इसे खाकर बीमार पड़ जाएंगे तो उस संयम का एक अपना ही सुख होता है. झूठ बोलने से हमें तात्कालिक लाभ भले मिले, लेकिन जो जानते हैं कि आगे चलकर इससे नुकसान होगा, उन्हें तात्कालिक हानि सहकर भी सच बोलने में आनंद मिलता है; ठीक उसी तरह जैसे नशा करने वाले स्वाद के लिए नशा नहीं करते, बल्कि इसलिए करते हैं कि उन्हें पता होता है उसके बाद मदहोशी छा जाएगी. लेकिन जो नशे के दुष्परिणामों को जानते हैं वे उसे उतना ही बुरा भी समझते हैं. 

तो अगली बार जब आप किसी को नि:स्वार्थ भाव से परमार्थ कार्य करते देखें तो यह न सोचिएगा कि वह कष्ट सहकर ऐसा कर रहा होगा. जितना सुख आपको अपना स्वार्थ सिद्ध होने में मिलता है, क्या पता उसे परमार्थ में भी वैसा ही सुख मिलता हो! 

(14 मई 2025 को प्रकाशित)

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