तप बल से दुनिया चलती है

हर चीज पुरानी मुझे सुहानी लगती थी
सबसे खराब लगता था अपना वर्तमान
चिंता भविष्य की होती थी।
पर पढ़ा कहीं जब
गीत मधुर जो सबसे ज्यादा होते हैं
वे चरम दर्द के क्षण में पैदा होते हैं
तब सहसा ही यह लगा
मिला है मुझको जो अनुपम मौका
क्यों व्यर्थ गंवाता जाता हूं!
सह करके चौदह वर्षों का वनवास
राम भगवान रूप बन पाये थे
हों शिबि, दधीचि या हरिश्चंद्र
सब त्याग-तपस्या के बल पर ही
अमर हमारी स्मृति में हैं
फिर क्यों प्रतिकूल परिस्थिति से मैं डरता हूं
सोना जब तप करके ही कुंदन बनता है
कोयला दाब सह करके हीरा बनता है
फिर क्यों घनघोर परिश्रम से मैं बचता हूं!

रचनाकाल : 29 अप्रैल 2025

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