कमजोर पड़ते मानवीय मूल्य और आलोचना का स्थान लेती निंदा

 हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन.रवि को राज्य सरकार के विधेयकों को दबाए रखने के लिए फटकार लगाने के साथ ही, अपनी अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उन विधेयकों को कानून का रूप दे दिया. इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रपति भी विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए रोक कर नहीं रख सकते हैं. अब कुछ लोगों ने इसको लेकर न्यायपालिका पर पलटवार किया है. 

 निश्चित रूप से भारत के राष्ट्रपति का पद बहुत ऊंचा होता है और कोई उन्हें निर्देश दे(चाहे वह अदालत ही क्यों न हो), यह शोभा नहीं देता. लेकिन देश का सर्वोच्च पद होते हुए भी क्या यह बात किसी से छिपी है कि राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार ही काम करना होता है? और सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रपति पर जो टिप्पणी की, क्या वह परोक्ष रूप से केंद्र सरकार पर ही नहीं है? 

पलटवार करने वालों ने हाईकोर्ट के एक जज के आवास से जली नगदी मिलने के मामले में एफआईआर दर्ज न होने पर सवाल उठाते हुए कहा कि ‘क्या कानून से ऊपर कोई नई श्रेणी बन गई है, जिसे जांच से छूट मिल गई है?’  

दामन अगर साफ हो तो एक भी दाग कितनी बड़ी क्षति पहुंचाता है, ‘कैश कांड’ इसका ज्वलंत उदाहरण है. क्या इसके पहले न्यायपालिका पर इतना बड़ा आक्षेप करने की किसी की हिम्मत हो सकती थी? और तमिलनाडु के राज्यपाल अगर विधेयकों को रोके रखने में अति की सीमा पार नहीं कर गए होते तो क्या कोई सोच सकता था कि सर्वोच्च अदालत राष्ट्रपति पर भी टिप्पणी कर सकती है? 

हमारे देश में न्यायपालिका को जितना सम्मान हासिल है, उतना ही राष्ट्रपति पद को भी. दोनों की ही अपनी-अपनी गरिमा है और किसी एक में भी कहीं विचलन नजर आए तो दूसरे को अधिकार है कि ससम्मान उसे सजग करे. पुराने जमाने में राजनीतिक मामलों को लेकर तीखी बहस होने के बाद भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं के मन में निजी स्तर पर एक-दूसरे के प्रति सम्मान होता था और यही आदर भाव उन्हें राजनीतिक बहसों में घटिया स्तर पर उतरने से रोके रखता था. सम्मान की यह भावना ही है जो हमें मनुष्यता के स्तर से नीचे गिरने से बचाती है.

विधायिका, कार्यपलिका और न्यायपालिका- तीनों ही सरकार के अंग हैं और संविधान निर्माताओं ने शायद इनमें से किसी के भी बड़े या छोटे होने की कल्पना नहीं की थी. फिर भी यह आम धारणा है कि नेताओं से निष्पक्षता की उम्मीद जरा मुश्किल ही है और कार्यपालिका चूंकि विधायिका के नियंत्रण में काम करती है, इसलिए कोई विवाद होने की स्थिति में आम आदमी अंतिम निर्णय के लिए न्यायपालिका की ओर ही देखता है. लेकिन कुछ निहित स्वार्थी तत्व अब न्यायपालिका पर प्रहार करने के लिए राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद की ओट लेने लगे हैं. उन्हें शायद आलोचना और निंदा का फर्क ही पता नहीं है! आलोचना सकारात्मक होती है, जिसमें भलाई की भावना छिपी होती है; जबकि निंदा स्वभाव से ही नकारात्मक होती है, जिसमें शत्रुता का भाव झलकता है. हालांकि बढ़ते विरोध के कारण न्यायपालिका पर आक्षेप करने वाले फिलहाल बैकफुट पर हैं लेकिन मौका मिलते ही फिर से प्रहार करने में क्या वे चूकेंगे! 

जंगल में जब लकड़बग्घों को लगता है कि शेर कमजोर हो चला है तो वे मिलकर उसका शिकार करने की कोशिश करते हैं. जब मनुष्यता कमजोर पड़ने लगती है तब क्या हम मनुष्यों के भीतर का लकड़बग्घा भी सिर उठाने लगता है? 

(24 अप्रैल 2025 को प्रकाशित)

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