...हर बार जनम लेंगे

जब साल बीतने लगता है
शर्मिंदा होने लगता हूं
संकल्प लिये थे पहले जो
कुछ भी तो पूरे नहीं हुए!
तो नये साल के अवसर पर
क्या कोई नव-संकल्प न लूं
जब नियति हारना ही है तो
कोशिश ही क्यों फिर व्यर्थ करूं?

पर हार मानकर दुनिया में
कब भला कहीं कुछ रुकता है
आती अंधियारी रात रोज
दिन फिर भी रोज निकलता है
मरना है सत्य अटल फिर भी
जीवन तो जारी रहता है
जब हार मानती नहीं प्रकृति
फिर मैं निराश क्यों हो जाऊं?

इसलिये सबक ले भूलों से
शुरुआत नई फिर करता हूं
क्या होगा हश्र, नहीं इसकी
चिंता में बैठा रहता हूं
मरने का डर यदि मन में हो
तो इस दुनिया में बच्चों का
क्या कभी जन्म हो पायेगा!
जीवन बनकर क्या बोझ नहीं रह जायेगा?

(रचनाकाल : 24-26 दिसंबर 2025)

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