दिखावे की भेंट चढ़ती छोटी-छोटी खुशियां और जड़ जमाती बुराइयां

 मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल पांच जिलों में आदिवासियों ने शादी-ब्याह में फिजूलखर्ची रोकने के लिए ‘दारू-डीजे-दहेज’ फ्री (मिशन डी-3) नामक सराहनीय पहल शुरू की है, जिससे चाहे तो पूरा देश प्रेरणा ले सकता है. अलीराजपुर,  धार, झाबुआ, बड़वानी और खरगोन जिलों में पिछले दो वर्षों में हुई चार हजार से अधिक शादियों में संबंधित परिवारों के करोड़ों रुपए बचे हैं. दरअसल डीजे, दारू और दहेज सिर्फ आदिवासियों की ही समस्या नहीं है बल्कि पूरा देश इससे जूझ रहा है. हालांकि आदिवासी समाज में जन्म, विवाह और मृत्यु के कार्यक्रमों में प्राय: शराब पीने-पिलाने का चलन रहा है, लेकिन अब समाज के जागरूक लोगों ने शराब से होने वाले नुकसान को देखते हुए इससे दूर रहने का फैसला किया है. इसके अलावा डीजे की कानफोड़ू आवाज पर रोक लगाते हुए, शादी समारोह में केवल पारंपरिक वाद्य यंत्र ही बजाए जा रहे हैं, जिससे लोग अपनी परंपरा से पुनः जुड़ रहे हैं. जहां तक दहेज का सवाल है तो आदिवासी समाज में इसकी प्रथा नहीं रही है लेकिन दुर्भाग्य से आधुनिक समाज की देखा-देखी उनमें भी यह बुराई अपने पैर जमाने लगी थी. इसलिए आदिवासी समाज के कर्ता-धर्ताओं ने अब दहेज मांगने वाले वर पक्ष के सामाजिक बहिष्कार का फैसला किया है. 

कुछ दशक पहले तक किसी भी समाज में शादियां आज की तरह खर्चीली नहीं हुआ करती थीं. हर किसी की बेटी पूरे गांव की बेटी मानी जाती थी और गांव-घर के सब लोग मिल-जुल कर विवाह समारोह निपटा लिया करते थे. हलवाई पहले सिर्फ होटलों में ही देखने को मिलते थे. हर गांव में पूड़ी-सब्जी, मिठाइयां बनाने में कुछ न कुछ लोग विशेषज्ञता हासिल किए रहते थे. गांव की महिलाएं अपने-अपने घर से चौका-बेलन लाकर पूड़ी बेल देतीं. बच्चों की टोली अपनी फुर्ती दिखाते  हुए हर काम में सहायक की भूमिका निभाती और हंसते-खेलते सारा काम हो जाता था. बाजार के हस्तक्षेप की जरूरत बहुत ही कम पड़ती थी. हल्दी-मेहंदी की रस्में तब भी होती थीं, लेकिन उन्होंने आज की तरह दिखावे का रूप नहीं लिया था. अघोषित परंपरा थी कि बारातियों को खिलाने के बाद ही घराती पक्ष के लोग खाना खाएंगे. आज हम शादियों में जाते हैं, वर-वधू को लिफाफा थमा कर फोटो खिंचवाते हैं और खाना खाकर चले आते हैं. पहले की गर्मजोशी से तुलना करें तो क्या यह सब महज औपचारिकता जैसा नहीं लगता है! 

आज हम शादी-ब्याह में हर चीज इवेंट मैनेजरों के हाथों में सौंपकर सारे ‘झंझट’ से मुक्त रहना चाहते हैं. शहर तो दूर, गांव-गांव में जिस तेजी से विवाह घर या मैरिज गार्डन बनते जा रहे हैं, उससे लगता है कि वैवाहिक समारोहों में घर के छोटे-छोटे अनगिनत कामों से तो हम मुक्ति पा ले रहे हैं लेकिन इस चक्कर में कहीं उन छोटी-छोटी खुशियों से भी तो हाथ नहीं धोते जा रहे हैं जो इन कामों से मिलती थीं! 

बात सिर्फ शादियों की ही नहीं है. आज हम हर चीज रेडीमेड पाने की इच्छा रखने के आदी होते जा रहे हैं. पहले जब घरों में चौबीस घंटे के अखंड मानस का आयोजन होता तो गांव-घर के सभी लोगों की उसमें सहभागिता होती थी. आज हम गायक मंडलियां बुलाकर रामायण पाठ को संगीतमय तो बना लेते हैं लेकिन रामायण की चौपाइयां खुद गाने में जो आनंद मिलता है, क्या उससे चूक नहीं जाते हैं? पेशेवर लोग चीजों को बेशक पेशेवराना ढंग से करते हैं लेकिन मौलिकता का सुख भी क्या उसमें मिल पाता है? विवाह घरों में हमें सारी चीजें, सेवाएं रेडीमेड उपलब्ध हो जाती हैं और आयोजन ‘परफेक्ट’ तरीके से संपन्न होता है(इस चक्कर में वर-वधू के परिवार कई बार कर्जदार भी हो जाते हैं), लेकिन अपने घर के सामने लगे पंडाल और आंगन में सजे मंडप से हमें जो भावनात्मक लगाव महसूस होता है, उसकी तुलना में विवाह घरों की शादियां क्या खूब सजी-धजी हुई बेजान मूर्तियों के समान नहीं लगती हैं?

शहरों में जो चीज जरूरत के तौर पर प्रचलित हुई थी (क्योंकि फ्लैटों में इतनी जगह नहीं होती), उसका अंधानुकरण गांवों से उनकी विशेषता छीनता जा रहा है. अभावों के बीच भी जो सद्‌भाव था, वह लुप्त होता जा रहा है. धड़कनों की रफ्तार बढ़ा देने वाले डीजे ने पारंपरिक ढोल-नगाड़ों, शहनाइयों और लोकगीतों को चलन से बाहर कर दिया है, जिसकी धुन में प्राय: शराब के नशे में मदमस्त युवा ही ‘नागिन डांस’ कर पाते हैं. ऐसे में, खुद को सभ्य मानने वाले हम अभिजात्य लोग क्या मिशन डी-3 चलाने वाले आदिवासियों से कुछ सीख लेंगे? 

(26 नवंबर 2025 को प्रकाशित)

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