घर-बाहर का फर्क

मैं घर में रखता था सबकी सुख-सुविधाओं का ध्यान
मगर बाहर जाते ही चिंता अपनी करने में लग जाता था
घर में मुझको बदले में मिलता खूब मान-सम्मान
मगर जब भरी भीड़ में सीट झपटता बस में तो
चालाक लोमड़ी जैसा सबकी नजरों में बन जाता था।
इसलिये दौड़ने की ताकत होने पर भी
अब लाइन में सबसे पीछे ही लगता हूं
घर में जैसे रखता हूं सबका ध्यान
ठीक वैसा ही सबका बाहर भी अब रखता हूं
तन को थोड़ी होती तो है तकलीफ, मगर
मन को सुकून उससे भी ज्यादा मिलता है
चौकन्ना रहता था, अब चेहरा खिला-खिला सा रहता है
हो भले क्षीण कितना ही लेकिन बाहर भी
अब घर जैसा ही फर्क नजर तो आता है!


रचनाकाल : 16 नवंबर 2025


Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

उल्लास उधारी का