सबकुछ बदल गया!

पहले रख व्रत-उपवास
मनाया करते थे उत्सव सारे
ये कैसे भोग-विलास
हमारे त्यौहारों का अर्थ नया बन गया!

‘बाजारू’ तो था हेय सदा
हो जिसके पास अधिक जो
अदला-बदली वे कर लेते थे
बाजार मगर फिर कैसे सबकुछ निगल गया!

‘धन-दौलत गई, कुछ गया नहीं
पर चरित्र गया, कुछ बचा नहीं’
हमने तो हरदम यही पढ़ा
फिर लक्ष्य जिंदगी का यह कैसे बदल गया!

सर्वस्व सदा माना अपना
जिन जीवन-मूल्यों को हमने
दकियानूसी कह कर उनको
कब छोड़, जमाना आगे निकल गया!


रचनाकाल : 7 नवंबर 2025


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