ये जो लौ जली है वो बुझ गई तो न दूर होगा तमस कभी

 तमिलनाडु की सेंट्रल जेलों में इन दिनों एक अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिल रहा है. जो कैदी पहले गैंग बनाकर आपस में लड़ते-भिड़ते रहते थे, वे अब ग्रुप बनाकर पढ़ाई कर रहे हैं. दरअसल तमिलनाडु की सभी नौ सेंट्रल जेलों में अगस्त 2024 से कोंडुकुल वनम (किताब एक आकाश की तरह है) योजना चलाई जा रही है. इसके तहत जेल में सभी पढ़े-लिखे कैदियों के लिए किताब पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है. एक साल के भीतर ही इस योजना को इतनी अप्रत्याशित सफलता मिली है कि राज्य की बाकी 14 जिला जेलों में भी जेल विभाग लाइब्रेरी शुरू करने जा रहा है. 

एक दूसरी उत्साहवर्धक खबर राजस्थान के जालौर जिले से है. वहां के दो गांवों- रेवत और कलापुरा में सरकारी स्कूल के ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा के छात्र अपने परिवार और गांव के बुजुर्गों के पास बैठते हैं. उनसे बातचीत करके क्षेत्र के इतिहास के बारे में जानकारी जुटाते हैं और बुजुर्गों की बताई कहानियां अपनी नोटबुक में दर्ज करते हैं. फिर स्कूल में शिक्षक सभी बच्चों की डायरियां इकट्ठी करने के बाद उनमें से कॉमन कहानियों को बड़ी पोथी में लिपिबद्ध करवाते हैं. अब तक 300 बच्चे अपने बुजुर्गों के बताए अनुसार अपने इलाके का इतिहास लिख चुके हैं, जिसमें एक हजार साल पुरानी रोचक बातें भी सामने आई हैं. एक बड़ा फायदा यह हुआ है कि बच्चों और बुजुर्गों के बीच इससे जुड़ाव बढ़ा है और पीढ़ियों के बीच दूरी (जेनरेशन गैप) में कमी आ रही है. 

आजादी के आंदोलन के दौरान देश के बड़े-बड़े नेताओं को लिखने-पढ़ने का समय प्राय: जेलों में ही मिलता था. पं. जवाहरलाल नेहरू ने तो अपना लगभग सारा साहित्य जेलों में ही रचा है. लोकमान्य तिलक ने भी अपनी किताब ‘गीता रहस्य’ जेल में ही लिखी थी. हालांकि तब जेलों में आमतौर पर देशभक्तों को ही रखा जाता था, लेकिन आज भी बहुत से कैदी गुस्से में या परिस्थितिवश किए गए अपराध का दंड भोगने ही आते हैं. अक्सर जेलों में खूंखार अपराधियों के बीच रहने के बाद वे पक्के अपराधी बनकर बाहर निकलते हैं. लेकिन तमिलनाडु की सेंट्रल जेलों से कैदी सुनहरे भविष्य के सपने संजोकर बाहर निकल रहे हैं. 

उधर राजस्थान के एक सरकारी स्कूल के व्याख्याता संदीप जोशी द्वारा जगाई गई अलख ने दो गांवों के बच्चों और बुजुर्गों में एक नये उत्साह का संचार कर दिया है. किस्से-कहानियां सुनते-सुनाते हुए दोनों के चेहरों पर चमक होती है. ऐसे समय में, जबकि देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है और कामकाजी माता-पिताओं के चलते एकाकी होते बच्चों का बचपन मोबाइल गेमों की भेंट चढ़ रहा है, यह अनूठी पहल पूरे देश को दिशा दिखा सकती है. 

वास्तव में इस तरह के रचनात्मक कार्य ही किसी सभ्यता को समृद्ध करते हैं. गांधीजी ने अपने जीवनकाल में जितने आश्रम स्थापित किए, उनके पीछे यही ध्येय था. देश पराधीन होने के कारण उन्हें अपना बहुत सारा समय आजादी के आंदोलन के लिए देना पड़ता था लेकिन आजादी के बाद उनका सपना इसी तरह के कार्य करने का था. दुर्भाग्य से हमारी कट्टरता ने इसके लिए उन्हें समय ही नहीं दिया. 

जिन्हें आक्रामकता पसंद होती है उन्हें युद्धों या अराजकता में मजा आता है लेकिन किसी भी देश की आम जनता प्राय: अमन पसंद होती है और रचनात्मक कार्यक्रमों से ही उसकी प्रतिभा निखरती है. त्रासदी यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ ही हम मनुष्यों के स्वभाव में आक्रामकता भी बढ़ती जा रही है (दुनिया में बढ़ती लड़ाइयां इसकी गवाह हैं) और रचनात्मक पहलें दुर्लभ होती जा रही हैं. इसलिए जहां भी इस तरह अच्छे कामों की लौ जलती हुई दिखे, हमें उसे तूफानों से बचाते हुए, मशाल बनाकर जगह-जगह फैलाने की कोशिशों में अपना योगदान देना चाहिए, तभी गहराते अंधेरे को स्थायी रूप से अपना साम्राज्य स्थापित करने से रोका जा सकेगा. 

(8 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित)

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