दीपक को चाहे जितना नीचे रखें, मगर लौ उसकी ऊपर रहती है
हाल ही में ब्रिटेन में धान की खेती सफलतापूर्वक किए जाने की खबर सामने आई है. जो लोग ब्रिटेन की आबोहवा से परिचित हैं वे जानते हैं कि वहां के लोग चावल खाते जरूर हैं, लेकिन विदेशों से आयात करके, क्योंकि वहां की जलवायु धान की खेती के अनुकूल नहीं है. लेकिन जलवायु परिवर्तन ने अब इसे संभव कर दिखाया है. शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि औसत वार्षिक तापमान दो से चार डिग्री सेल्सियस बढ़ा तो ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर चावल की खेती संभव हो सकती है.
राजस्थान का थार रेगिस्तान भारत से लेकर पाकिस्तान तक करीब दो लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है और यह दुनिया का बीसवां सबसे बड़ा रेगिस्तान है. पिछले दिनों अर्थ फ्यूचर जर्नल में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक अगर भारतीय मानसून के पश्चिम की ओर लौटने की प्रवृत्ति जारी रही तो इस सदी के अंत तक यह हरा-भरा हो सकता है (इसके संकेत अभी से दिखने लगे हैं, राजस्थान के कई हिस्सों में हरियाली नजर आने लगी है और बाढ़ भी आने लगी है). वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि हजारों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में सिंधु घाटी सभ्यता मौजूद थी और तब यहां भरपूर मानसूनी बारिश होती थी.
दुनिया में बहुत सारी जगहें ऐसी हैं जहां तापमान माइनस के आसपास पहुंच जाने के कारण इंसानी बस्तियां बहुत कम हैं, या हैं ही नहीं. ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब उन इलाकों में जीवन सुगम होने की उम्मीदें बढ़ गई हैं. जैसे उत्तरी यूरोप अब पहले के मुकाबले दो डिग्री ज्यादा गरम है और हीटिंग के लिए वहां कम ईंधन की जरूरत पड़ रही है.
तो क्या जलवायु परिवर्तन अच्छा है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि पर्यावरणविद जिस बात की आशंका लम्बे समय से जताते रहे हैं, वह अब सच साबित होने लगी है. प्राकृतिक आपदाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, गर्मी असहनीय पड़ने लगी है, ठंडी भी और बरसात भी बेतहाशा होने लगी है. यह भी सच है कि जलवायु के इस बदलाव को रोक पाना अब करीब-करीब नामुमकिन हो चला है और हजारों वर्षों से जमी बर्फ के पिघलने से उसमें दबे वायरसों के दुनिया में कहर ढाने का खतरा बढ़ गया है. हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ कर पाने के लिए अभी भी 20-25 साल का समय बाकी है, लेकिन जो काम हम पिछले सौ-पचास वर्षों में नहीं कर पाए, उससे कई गुना ज्यादा बीस-पच्चीस वर्षों में कर पाने की उम्मीद पालना मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखने जैसा ही होगा. तो अब उपाय क्या है? क्या हमें निराश होकर हाथ पर हाथ धरे, अपनी मानव जाति के अंत का इंतजार करना चाहिए?
कहते हैं आज जहां अरब सागर है, उसके बीचोंबीच कभी कृष्ण की द्वारका नगरी हुआ करती थी. मिस्र का शानदार शहर अलेक्जेंड्रिया, जापान का समृद्ध योनागुनी द्वीप, पौराणिक शहर अटलांटिस- सब आज पानी में डूबे हुए हैं. जलप्रलय की कहानियां प्राय: सभी प्राचीन सभ्यताओं में मौजूद हैं. वैज्ञानिक साक्ष्य साबित करते हैं कि हिमयुग की गाथाएं सिर्फ दंतकथाएं नहीं हैं, वे वास्तव में समय-समय पर आते रहे हैं. सर्वनाश की ऐसी घटनाओं के बाद भी आज अगर हमारी मानव जाति अस्तित्व में है तो जलवायु परिवर्तन की आसन्न आपदा से हम क्यों भयभीत हों?
प्रजातियों का अंत दरअसल तब होता है जब वे तेजी से होने वाले बदलावों के अनुकूल अपने आप को ढाल नहीं पातीं. यह सच है कि जलवायु में बदलाव अब बहुत तेजी से होने वाले हैं; तो क्यों न हम खुद को उनके अनुरूप ढालने की मानसिक तैयारी शुरू कर दें! लेख के शुरू में वर्णित उदाहरण दिखाते हैं कि सबकुछ बुरा ही नहीं होगा. जरूरत हमें आपदा में अवसर खोजने की है. सच तो यह है कि सुख और दु:ख का कोई निरपेक्ष अस्तित्व नहीं होता, वे सापेक्ष अवधारणाएं होती हैं; वरना कैसे संभव था कि सबसे निर्धन देशों में शामिल भूटान दुनिया को सकल राष्ट्रीय खुशहाली सूचकांक की अवधारणा प्रदान करता? खुशी अगर पैसों से ही आती तो क्या दुनिया के सारे अमीर सुखी नहीं रहते? मनुष्य स्वभाव की यह विशेषता होती है कि वह बहुत जल्दी अपने को माहौल के अनुरूप ढाल लेता है. जैसे सुविधाओं का अभ्यस्त हो जाने पर धीरे-धीरे उनसे मिलने वाला सुख कम होने लगता है, वैसे आपदाओं की आदत भी उनसे होने वाले कष्टों को धीरे-धीरे कम कर देती है.
तो क्या हम आधी खाली गिलास को आधी भरी के नजरिये से देखते हुए, ‘...सदा मगन में रहना जी’ गीत को अपने जीवन में चरितार्थ करने को तैयार हैं? आखिर जब रसातल में रखे जाने पर भी दीपक की लौ हमेशा ऊपर की ओर ही उठी रहती है तो हम भी बुरी से बुरी परिस्थिति में भी अपना दृष्टिकोण सकारात्मक क्यों नहीं रख सकते!
(15 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित)
Comments
Post a Comment