दूसरे की लकीर मिटाने की जगह हम क्यों नहीं खींचते बड़ी लकीर !

 शून्य से भी नीचे के तापमान वाले लद्दाख का माहौल इन दिनों गरम है. अपने पर्यावरणपरक कार्यों से सिर्फ लद्दाख ही नहीं, बाकी दुनिया में भी ख्याति प्राप्त सोनम वांगचुक इन दिनों जेल में हैं, और वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत, जिसमें जमानत भी जल्दी नहीं होती. उन पर हाल ही में लद्दाख में भड़की हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप है. लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और संविधान की छठवीं अनुसूची में शामिल करने सहित कुछ अन्य मांगों को लेकर वांगचुक 35 दिनों की भूख हड़ताल पर बैठे थे, लेकिन दसवें दिन ही आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया. वांगचुक ने तत्काल अपना आंदोलन वापस ले लिया और कहा कि युवाओं ने हताश होकर ऐसा किया है लेकिन उन्हें हिंसा नहीं करनी चाहिए थी. 

 पिता सोनम वांग्याल राज्य सरकार में मंत्री थे, लेकिन प्रकृति और पर्यावरण में गहरी रुचि रखने वाले सोनम वांगचुक की जीवन शैली बेहद साधारण है. खुद एनआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री पा चुके हैं लेकिन सरकारी शिक्षा की खामियों का पता चलने पर ऐसा स्कूल खोला, जिसमें टॉप स्कूलों की उच्चतम अंकों वाली प्रवेश प्रक्रिया के उलट, फेल होने वाले बच्चों को पहले दाखिला मिलता है. इनोवेशन इतने कर चुके हैं कि उनके बनाए सौर ऊर्जा चालित घर माइनस 25 डिग्री तापमान में भी अंदर से गर्म रहते हैं. भारतीय सेना के लिए बनाए विशेष हीटर टेंट बिना किसी जीवाश्म ईंधन के सैनिकों को शून्य से नीचे के तापमान में गर्म रखते हैं. उनके बनाए आइस स्तूप माइनस तापमान में भी महीनों तक पानी उपलब्ध कराते हैं. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पा चुके हैं लेकिन सबसे बड़ा पुरस्कार लोगों का यह विश्वास है कि हिंसा भड़काने के आरोपों के बावजूद वे मानते हैं कि वांगचुक ऐसा कर ही नहीं सकते. 

थप्पड़ अगर अपने से मजबूत किसी चीज पर लगाया जाए तो अपना ही हाथ चोटिल होता है. सवाल यह नहीं है कि वांगचुक सही हैं या गलत; सवाल यह है कि उन पर हाथ डालने वालों का उनके मुकाबले कद कितना बड़ा है? दूसरे की लकीर को छोटा करने के दो तरीके होेते हैं. बर्बर तरीका तो यह है कि उसे मिटाने की कोशिश की जाए, जिसे युद्धों में विजेता अपनाते हैं, जब वे विजितों की सारी उपलब्धियों को नेस्तनाबूद करने की कोशिश करते हैं. दूसरा तरीका यह है कि खुद उससे बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की जाए, जैसा कि महापुरुष करते हैं. महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर समकालीन थे. गांधीजी ने उन्हें गुरुदेव की उपाधि दी तो टैगोर ने उन्हें महात्मा की. कई बातों में दोनों के बीच गहरा मतभेद था, लेकिन दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर थे और उनके मन में एक-दूसरे के प्रति अपार सम्मान था. वास्तव में दूसरे की लकीर मिटाने की बजाय सब अपनी-अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश करें तो हार किसी की नहीं होती, जीत सभी की होती है. 

हो सकता है सोनम वांगचुक कुछ लोगों की नजर में गलत हों, लेकिन इसके लिए उनकी उपलब्धियों को नकारना क्या जरूरी है? आज हिमालय के पहाड़ जिस तरह से दरक रहे हैं, प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखा रही है, उससे साबित होता है कि हमारे सत्ताधारियों की दूरदृष्टि सोनम वांगचुक से अच्छी तो हर्गिज नहीं है. अपने सारे संसाधनों के बावजूद सरकार पर्यावरण प्रदूषण को रोक नहीं पा रही (उल्टे हिमालय क्षेत्र में उसके कथित विकास वहां के इको सिस्टम को ही तबाह कर रहे हैं), जबकि लद्दाखवासियों ने पिछले कई वर्षों से अपने क्षेत्र में स्वेच्छा से प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा रखा है. ऐसे में अगर हम उन पर कीचड़ उछालने की कोशिश करेंगे तो क्या वह हमारे मुंह पर ही आकर नहीं गिरेगा?

हम मनुष्यों की सहज प्रवृत्ति होती है अपने सामने कोई न कोई आदर्श रखने की. उसी से तुलना करके हम अपनी उपलब्धियों को मापते हैं. इसलिए अगर कोई उस आदर्श को बेदखल करना चाहता है तो पहले उसे नया आदर्श सामने रखना होगा, और यह काम पाशविक तरीके से तो हर्गिज नहीं हो सकता. पशुबल से हम भयभीत कर सकते हैं लेकिन किसी का दिल नहीं जीत सकते... और भयभीत करके सिर्फ दुश्मन ही बनाया जा सकता है, दोस्त नहीं. सीमा के उस पार तो हमारे दुश्मनों की कमी वैसे भी नहीं है, इस पार भी अगर हमने वैसे ही बना लिए तो क्या यह आग से खेलने के समान नहीं होगा?

(1 अक्टूबर 2025 को प्रकाशित)

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