पूर्वाग्रह थोपने से कुंद होती प्रतिभा और अवरुद्ध होता विकास

 कहावत है कि इतिहास विजेता का ही लिखा जाता है. इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि सत्तारूढ़ दल इतिहास को अपने नजरिये से दिखाने की कोशिश करता है. इन दिनों देश में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के मौके पर जारी एक विशेष पाठ की चर्चा हो रही है. इस पाठ में भारत के बंटवारे के लिए मोहम्मद अली जिन्ना, कांग्रेस और तत्कालीन वायसराय लार्ड माउंटबेटन को जिम्मेदार ठहराया गया है. इसके पहले भी एनसीईआरटी पर स्कूली पाठ्यक्रम में तथ्यों को देखने का दृष्टिकोण बदलने के ‘आरोप’ लगते रहे हैं. आखिर तय कैसे हो कि तथ्यों को पहले जिस दृष्टिकोण से देखा जा रहा था वह सही था या अब जो बदलाव किया गया है वह सही है? 

दुनिया में जितने भी टकराव होते हैं उनके पीछे नजरिये का ही फर्क होता है. प्राचीनकाल से ही विजेता के दृष्टिकोण को सही माना जाता रहा है. फिर आज अगर अपने नजरिये से बच्चों को इतिहास पढ़ाने की पहल हो रही है तो इसमें गलत क्या है? लेकिन लोकतंत्र में तो हर पांच साल में चुनाव होते हैं! तो क्या इतनी जल्दी-जल्दी इतिहास को देखने के नजरिये में बदलाव व्यावहारिक दृष्टि से संभव है? 

इसमें कोई शक नहीं कि हर चीज को देखने के सर्वथा अलग-अलग दो पहलू हो सकते हैं. आधे भरे गिलास को आधा खाली भी कहा जा सकता है. रात के अंधेरे में दुनिया को देखने वाले इसके बारे में जो धारणा बनाएंगे, दिन के उजाले में उसे देखने वालों का नजरिया एकदम भिन्न हो सकता है. लैला-मजनूं की कहानी को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, लेकिन यह भी सच है कि लैला के गांव में मजनूं को नफरत की निगाह से देखा जाता था. कार्ल मार्क्स को साम्यवादी देशों में नायक माना जाता था, लेकिन पूंजीवादी देशों में उन्हें खलनायक के रूप में देखा जाता था. दलबदलू नेता जहां अपने कृत्य को हृदय परिवर्तन मानता है, वहीं विरोधी नेता इसे गद्दारी का नाम देते हैं. दृष्टिकोण की यह भिन्नता हर चीज पर लागू हो सकती है. ऐसे में इतिहास पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ऐतिहासिक तथ्यों को बिना किसी तोड़-मरोड़ के, ज्यों का त्यों प्रस्तुत करते हुए उसके बारे में परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों की जानकारी भी दी जाए और कौन सही है कौन गलत, यह तय करने का फैसला विद्यार्थियों के ऊपर ही छोड़ दिया जाए? 

जिस तरह खुली जगह मिलने पर ही पेड़-पौधे फलते-फूलते हैं, उसी तरह कोई पूर्वाग्रह नहीं होने पर ही विद्यार्थियों का भी भरपूर मानसिक विकास होता है और उनमें चारित्रिक विशेषताएं पनपती हैं. शायद यही कारण है कि इतिहास में हमें चरित्रवान लोग बड़ी संख्या में नजर आते हैं. सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, दानवीर कर्ण, ऋषि दधीचि, राजा बलि जैसे अनगिनत महापुरुषों की कहानियां हम सब जानते हैं. महात्मा गांधी का उदाहरण साबित करता है कि आज भी चरित्रवान लोग समाज में अपनी वैसी ही छाप छोड़ सकते हैं जैसी पहले छोड़ा करते थे. यह कहानी भी बहुत पुरानी नहीं है कि किसी पठान से एक व्यक्ति ने यह कहते हुए शरण मांगी कि दुश्मन उसकी जान के पीछे पड़े हैं. पठान ने उसे शरण तो दे दी लेकिन जब पता चला कि वह व्यक्ति उसके बेटे का हत्यारा है तो अपना सबसे तेज घोड़ा उसे देते हुए कहा कि तुम मेरे शरणागत हो, तुम्हारी जान बचाना मेरा फर्ज है. इसलिए रात भर में जितनी दूर भाग सकते हो भाग जाओ, क्योंकि कल सुबह मैं अपने बेटे के हत्यारे का पीछा करने निकलूंगा और तुम मिल गए तो जिंदा नहीं छोड़ूंगा. 

आज अगर ऐसे उदाहरण दुर्लभ हो गए हैं तो कहीं इसका कारण यह भी तो नहीं कि बच्चों पर विद्यार्थीकाल में ही हम अपने पूर्वाग्रह थोपकर स्वतंत्र व्यक्तित्व और चरित्र के निर्माण का अधिकार उनसे छीन लेते हैं? पौधों की अगर जड़ें काट दी जाएं तो उनके बोनसाई के अलावा और क्या बनने की उम्मीद की जा सकती है?  

(20 अगस्त 2025 को प्रकाशित)

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