बढ़ती प्रौद्योगिकी और घटती मनुष्यता से पैदा होता खतरा
हम मनुष्यों के भीतर जो भी विशेषता होती है, उसका मूल हमारे डीएनए में होता है. इसी में हमारी सारी आनुवंशिक जानकारी छिपी होती है. इसे कृत्रिम तौर पर किसी प्रयोगशाला में बनाना अभी तक लगभग असंभव माना जाता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने अब इसकी भी कोशिश शुरू कर दी है. दुनिया की सबसे बड़ी मेडिकल चैरिटी संस्था ‘वेलकम ट्रस्ट’ ने इस प्रोजेक्ट को शुरू करने के लिए शुरुआती तौर पर एक करोड़ पाउंड (करीब 115 करोड़ रुपए) दिए हैं. ट्रस्ट का कहना है कि इस तरह के प्रयोग से कई गंभीर बीमारियों के इलाज में तेजी आ सकती है, लोग स्वस्थ जीवन जी सकेंगे और उम्र बढ़ने के साथ शरीर में बीमारियां भी कम होंगी.
हालांकि परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रोजेक्ट का काम टेस्ट ट्यूब तक ही सीमित रहेगा और कृत्रिम तौर पर किसी को जन्म देने की कोशिश नहीं की जाएगी. लेकिन एक बार कृत्रिम डीएनए बनाने में कामयाबी मिल जाने के बाद, गलत लोग अगर इस तकनीक से जैविक हथियार, उन्नत मानव और यहां तक कि इंसानी डीएनए वाले अन्य जीव बनाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें कौन रोक पाएगा? जिन्न को बोतल से बाहर निकालना जितना आसान है, उसे वापस उसमें बंद करना भी क्या उतना ही सरल है?
पूर्व और पश्चिम की सभ्यता में कदाचित एक बुनियादी भेद रहा है. ऐसा नहीं है कि पूर्वी सभ्यता के हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों को प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान नहीं था, लेकिन इसे पश्चिम के आविष्कारों की तरह उन्होंने सर्वसुलभ नहीं बनाया था. जो भी इन्हें जानने की आकांक्षा रखता, उसे यम-नियमों का पालन कर पहले एक बेहतर इंसान बनना पड़ता था. हालांकि रावण जैसे अपवाद भी इसमें हुए हैं, जिन्होंने अपने प्रकांड ज्ञान का प्रयोग मानवता के खिलाफ किया, लेकिन बहुमत ऐसे मनुष्यों का ही था, जो अपने ज्ञान का उपयोग मानवता की भलाई के लिए करते थे.
पूर्व की अंतर्मुखी सभ्यता के उलट, पश्चिम की सभ्यता बहिर्मुखी रही है. वहां किए जाने वाले आविष्कार पूरे समाज के लिए फायदेमंद साबित होते रहे हैं. इसलिए पश्चिमी सभ्यता का पूरी दुनिया में छा जाना अकारण नहीं है. आज हमारे पास ऐशो-आराम के जितने भी संसाधन हैं, सब उसी की देन हैं.
पश्चिम ने तो अपनी परम्परा को जीवंत रखा है, लेकिन दुर्भाग्य से हम पूरब के लोग अपनी महान परम्पराओं का ढिंढोरा पीटते हुए भी, उस पर अमल करना भूलते जा रहे हैं. हममें से आखिर कितने लोग आज यम-नियम का पालन करते हैं? ब्रह्ममुहूर्त में जागना तो दूर, उगते सूरज को भी हममें से कितने लोग देख पाते हैं? यह जानते हुए भी कि दिन ढलने से पहले रात का भोजन कर लेना स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है, हममें से कितने लोगों का खाना आधी रात के पहले भी हो पाता है? डॉक्टरी का पेशा अगर आज सबसे ज्यादा फल-फूल रहा है तो यह अकारण नहीं है.
दुनिया में आज तक जितने भी आविष्कार हुए हैं, अगर हम एक बेहतर मनुष्य होते तो वे हमारे लिए वरदान साबित हो सकते थे और यह दुनिया स्वर्ग से भी सुंदर हो सकती थी. लेकिन आज हम बिजली बना सकने वाली परमाणु ऊर्जा से परमाणु बम बना रहे हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस खुशी देने के बजाय डराने ज्यादा लगा है और पृथ्वी के संसाधनों का प्रयोग दुनिया से गरीबी मिटाने की जगह दुश्मन देशों का अस्तित्व मिटाने में किया जा रहा है!
दुनिया को शायद अब नये आविष्कारों की नहीं, बेहतर मनुष्यों के निर्माण की जरूरत है. बीमारी के कारणों को मिटाकर स्वस्थ बनने की बजाय अगर हम उच्छृंखल जीवन जीकर भी, कृत्रिम डीएनए बनाकर स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन हासिल करने की कोशिश करेंगे तो कितनी भयानक प्रजाति के जीव बनकर रह जाएंगे, क्या इसकी कल्पना कर पाने में भी आज हम सक्षम हैं? कृत्रिम डीएनए बनाने की कल्पना हमें रोमांचित करती है लेकिन प्रकृति ने अरबों वर्षों की मेहनत से हमारा जो डीएनए बनाया, उसकी हमें क्या कोई कद्र नहीं है!
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