ये वो मंजिल तो नहीं!
अद्भुत थी हम इंसानों के भीतर क्षमता
कर पाते उसका सदुपयोग
तो देवों से भी आगे अब तक बढ़ जाते
होकर सम्पन्न धरा यह अद्भुत बन जाती
पर नजर न जाने कैसी यह लग गई
कि असुरों से भी नीचे मानवता गिर गई
कर्ज धरती का तो रह गया चुकाना दूर
खोखला करके मरणासन्न उसे कर दिया
बना सकते थे जिसको अमृत
विष में परिवर्तित कर दिया
नियति हम इंसानों की इतनी ज्यादा
बुरी तो नहीं होनी थी!
रचनाकाल : 06 जुलाई 2025
Comments
Post a Comment