पाने वाले के कद के हिसाब से घटती-बढ़ती पुरस्कारों की गरिमा
पुरस्कारों के बारे में आम धारणा यही है कि वे योग्यता के आधार पर दिए जाते हैं (हालांकि छुटभैये पुरस्कारों का ‘लेन-देन’ जगजाहिर है) लेकिन अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नोबल पुरस्कार पाने की बेकरारी से सवाल पैदा हो रहा है कि क्या इसे सत्ता के बल पर भी हथियाया जा सकता है?
ट्रम्प को शांति का नोबल पुरस्कार दिलाने के लिए दुनिया में लॉबिंग तेज होती जा रही है. पाकिस्तान के बाद इजराइल ने भी ट्रम्प को नोबल देने की मांग की है. कई अन्य राष्ट्र भी ट्रम्प की चापलूसी में लगे हैं. ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने उन्हें किंग चार्ल्स का शाही आमंत्रण पत्र दिया तो कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने ट्रम्प के ‘व्यक्तिगत नेतृत्व’ की खुलकर प्रशंसा की. नाटो महासचिव मार्क रूट ने भी उनकी सराहना की है.
यह चापलूसी अकारण नहीं है. आर्थिक बदहाली से जूझ रहे पाकिस्तान को अमेरिका से आर्थिक मदद की आस है. इजराइल को तो अमेरिकी मदद जगजाहिर है ही, कनाडा भी भारी-भरकम अमेरिकी टैरिफ से बचने की कोशिश में लगा है. यूरोपीय देश रूस की वक्र-दृष्टि से बचने के लिए ट्रम्प की कृपा-दृष्टि चाहते हैं.
ट्रम्प इस समय दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हैं. ऐसे में नोबल समिति कब तक उनकी लालसा पूरी करने से खुद को बचा पाएगी! यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को ट्रम्प ने व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में जो झटका दिया था, उससे वे जल्दी ही संभल गए और अमेरिकी राष्ट्रपति की तारीफों के पुल बांधने लगे. नतीजतन मदद जारी है. रूस को यूक्रेन के खनिज संसाधनों की बंदरबांट का सुनहरा प्रस्ताव ट्रम्प ने दिया, पर वह नहीं माना तो उससे व्यापार करने वाले देशों पर 50 फीसदी टैरिफ लगाने की तैयारी कर रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामाफोसा दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के सामने नहीं झुके तो उसकी सहायता घटा दी और व्यापार वार्ता को स्थगित कर दिया.
दुनिया में सही-गलत की अब कोई निरपेक्ष अवधारणा नहीं रह गई है. जिससे आपका हित सधे, वही सही है और जिससे न सधे, वह गलत. एलन मस्क की कंपनियों को जब तक सरकारी सब्सिडी मिलती रही, तब तक ट्रम्प ईमानदार आदमी थे, मदद बंद होते ही मस्क ने ट्रम्प के काले कारनामों को उजागर करने की धमकी देना शुरू कर दिया है!
तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा है कि ‘सचिव बैद गुर तीन जौ प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास.’ अब जब सारी दुनिया ही भय या लालच के चलते चापलूसी में लगी हो तो जाहिर है कि बंटाढार होना ही है. ऐसे समाज में सही-गलत की परिभाषा भी सब अपने-अपने स्वार्थ के हिसाब से तय करते हैं. भले ही कितना भी प्रतिष्ठित हो लेकिन ऐसा नहीं है कि नोबल पुरस्कार अभी तक दूध का धुला रहा है. जिन महात्मा गांधी के बारे में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों के लिए विश्वास करना मुश्किल होगा कि हाड़-मांस का ऐसा कोई आदमी भी इस धरती पर था, उन्हीं को नोबल पुरस्कार के योग्य मानने से नोबल समिति ने इंकार कर दिया था!
दाग सिर्फ योग्य को वंचित करने से ही नहीं लगता, अयोग्य को देने से भी लगता है. गांधीजी को पुरस्कार नहीं देने का अपराधबोध आज भी कभी-कभार नोबल समिति के कथनों में झलक जाता है. ऐसा न हो कि ट्रम्प को नोबल देने का पछतावा भी बाद में सदियों तक होता रहे!
लेकिन एक ऐसे दौर में, जब सारी दुनिया ही खुशामद में लगी हो, ट्रम्प को पुरस्कार हथियाने से कौन रोक पाएगा! हिटलर जैसे नृशंस व्यक्ति का इतिहास में होना आज भले ही हमें कितना भी हैरान करे लेकिन इससे उसके अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता. इसी तरह ट्रम्प राज पर हो सकता है आगामी पीढ़ियां हैरानी जताएं, लेकिन अगर गहराई से विचार करेंगी तो शायद समझ जाएंगी कि ट्रम्प अकेले इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे, चाटुकारिता में लीन समकालीन लोगों की भी इसमें भूमिका थी!
(16 जुलाई 2025 को प्रकाशित)
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