आदर्श सामने रखने से मिलती है आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा

 पिछले दिनों फिटनेस ट्रेनर एश्टन हॉल के मॉर्निंग रूटीन के वायरल हुए वीडियो की सबसे बड़ी खासियत यह नहीं थी कि इसमें वे अपनी दिनचर्या की शुरुआत सुबह चार बजे से पहले करते दिखते हैं, बल्कि यह थी कि इसे सोशल मीडिया पर 74 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया. कई लोगों के मन में सवाल उठा कि आखिर दूसरों की जिंदगी में ताकझांक करने के लिए हम इतने उत्सुक क्यों रहते हैं? 

दरअसल हम जाने-अनजाने, हमेशा हर चीज से अपनी तुलना करते रहते हैं. समय सभी के पास एक बराबर होता है और हमारे भीतर यह जानने की जिज्ञासा होती है कि समय का उपयोग कोई अगर हमसे बेहतर कर रहा है तो किस तरह से कर रहा है! इसीलिए हम अपने आदर्श गढ़ते हैं ताकि उसका अनुकरण कर सकें. यह परीक्षा में पूर्णांक का पीछा करने के समान है. प्रश्नपत्र जानबूझकर इस तरह बनाए जाते हैं ताकि कोई भी पूरे नंबर हासिल न कर सके. दरअसल शत-प्रतिशत हासिल करते ही हमारे जीवन के लक्ष्य विहीन हो जाने का खतरा रहता है. इसलिए साल-दर-साल बच्चे जैसे-जैसे ऊंची कक्षा में बढ़ते जाते हैं, प्रश्नपत्र तुलनात्मक रूप से कठिन होते जाते हैं. आठवीं कक्षा का छात्र पांचवीं कक्षा में शत-प्रतिशत अंक हासिल कर सकता है, लेकिन इसे उसकी उपलब्धि नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसकी असली चुनौती आठवीं की परीक्षा ही है. बेशक, दो साल बाद दसवीं में पहुंचने पर वह आठवीं के सारे प्रश्नों को हल करने की क्षमता हासिल कर लेगा, लेकिन तब उसकी योग्यता का आकलन दसवीं की परीक्षा से किया जाएगा. स्कूल-कॉलेज की परीक्षाएं तो एक उम्र के बाद खत्म हो जाती हैं लेकिन जीवन की परीक्षा शायद मरते दम तक चलती रहती है! 

दूसरों के जीवन में ताकझांक को प्राय: गलत माना जाता है, फिर भी अगर हमारे भीतर ऐसा करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो उसका कारण शायद यही है कि हम उनसे अपनी तुलना करना चाहते हैं! लेकिन तब इसे गलत क्यों माना जाता है? आखिर जिन महापुरुषों को हम अपना आदर्श मानते हैं, उनका अनुकरण करने में भी तो एक तरह से उनके जीवन में ताकझांक ही करते हैं!

दरअसल अपने बराबर या उससे कम गुणवत्ता वाले लोगों के जीवन से तुलना करने में हमारे भीतर यह आत्मसंतुष्टि आ जाने का खतरा बना रहता है कि हम उससे ऊपर हैं या कम से कम उसके बराबर तो हैं ही! लुगदी साहित्य हमेशा से गंभीर साहित्य से अधिक लोकप्रिय होता रहा है क्योंकि वह हमारी निम्न स्तर की लालसाओं को तृप्त करता है, लेकिन प्रतिष्ठा वह कभी भी गंभीर साहित्य के बराबर हासिल नहीं कर पाता, क्योंकि पानी को नीचे की ओर बहने में मेहनत नहीं लगती. गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा भले कठिन हो और ज्यादा लोग वहां तक न पहुंच सकते हों लेकिन आदर्श तो उसे ही माना जाएगा!

ईश्वर की कल्पना के पीछे भी संभवत: यही मनोविज्ञान है कि जिन आदर्शों का आरोपण हम उस पर करते हैं, उसे पाने की कोशिश कर सकें. लेकिन जब हमारी यात्रा में ठहराव आ जाता है तब मील के पत्थरों का पीछा करने की बजाय हम उनकी पूजा शुरू कर देते हैं. इस दूरी के ही कारण हमारे ईश्वर हमें मानवीय नहीं लगते. ईश्वरीकरण कर देने से हम उन्हें अपने जैसा मनुष्य नहीं मानते, इसलिए तुलना करने का भी प्रश्न पैदा नहीं होता.

शायद यही कारण है कि विशेषज्ञों का कहना है ‘जितना ज्यादा हम सोशल मीडिया पर दिखाए गए परफेक्ट जीवन को देखेंगे, उतना ही हमारी असली जिंदगी हमें मामूली लगेगी. यह हमारे संतुष्टि भाव को नुकसान पहुंचा सकता है.’

वास्तव में संतुष्टि का भाव हमें सुख तो देता है लेकिन हमारी प्रगति को भी रोक देता है. इसलिए अगर हम सुबह आठ बजे उठते हैं तो दस बजे उठने वाले की तुलना में अपने को बेहतर मानने की बजाय, (अगर तड़के चार बजे उठने वाले हम में हीनता बोध पैदा करते हों तो) कम से कम छह बजे उठने वाले को तो अपना आदर्श बना ही सकते हैं!  

(28 मई 2025 को प्रकाशित)

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