सृजनात्मकता पर हावी होती सत्ता और अर्थोपार्जन का संकट
दुनिया के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में शामिल हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जिस तरह से झुकाने की कोशिश कर रहे हैं और यूनिवर्सिटी झुकने से इंकार कर रही है, वह दुनियाभर में चर्चा का विषय है. यूनिवर्सिटी की नीतियों को ट्रम्प अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं और यूनिवर्सिटी के नहीं मानने पर उसकी 2.2 बिलियन डॉलर से अधिक की फंडिंग रोक दी है. इतना ही नहीं, हेल्थ रिसर्च से संबंधित और एक अरब डॉलर की फंडिंग भी रोकने की धमकी दी है. कोलंबिया समेत कई अन्य विश्वविद्यालयों की भी फंडिंग रोक कर ट्रम्प ने उन्हें घुटने टेकने पर मजबूर किया है, लेकिन हार्वर्ड झुकने से इंकार कर रहा है. हो सकता है वह इसलिए भी ऐसा कर पा रहा हो क्योंकि उसके पास 53.2 बिलियन डॉलर का विशाल कोष है, जबकि अन्य अमेरिकी विश्वविद्यालय उसकी तुलना में बहुत कम समृद्ध हैं! लेकिन इस घटनाक्रम ने यह बहस तो छेड़ ही दी है कि राज्य सत्ता पर निर्भर रहते हुए शिक्षा संस्थान उसकी नीतियों से खुद को अलग कैसे रख सकते हैं?
रचनात्मक प्रतिभाओं को सत्ता द्वारा पोषित किए जाने की परंपरा बहुत पुरानी है. कम-अधिक मात्रा में प्राय: सभी राजा अपने दरबार में अपने समय की उत्कृष्ट प्रतिभाओं का होना पसंद करते थे. मुगल बादशाह अकबर के दरबार के तानसेन, बीरबल, रहीमदास जैसे नवरत्न तो जगप्रसिद्ध हैं. लेकिन यह भी सच है कि ऐसी प्रतिभाएं अपने आश्रयदाता के हित में ही काम करती थीं. दरबारी कवियों को उस समय भी अच्छा नहीं माना जाता था, जिसे हम हजारों वर्ष पहले हुए महान कवि कालिदास के उदाहरण से समझ सकते हैं. कालिदास राज-दरबार में इसलिए नहीं जाना चाहते थे क्योंकि वे राजा के गुणों का बखान करने के बजाय अपनी रचनाओं के माध्यम से सत्य और सुंदरता को व्यक्त करना चाहते थे. कहते हैं तुलसीदासजी ने भी राज्याश्रय के आमंत्रण को इसीलिए ठुकरा दिया था क्योंकि वे दरबारी कवि बनने के बजाय अपनी रचनाओं में ईश्वर के गुण गाना चाहते थे. हालांकि स्वतंत्र रहकर अपनी रचनात्मकता को पोषित कर पाना तब भी आसान काम नहीं था और शायद यही कारण है कि दरिद्रता से तंग आकर आखिर विद्वान सुदामा को भी अपने सहपाठी रह चुके राजा कृष्ण से मिलने जाने के लिए मजबूर होना पड़ा था. ब्राह्मण बाद में भले ही लालची होते गए हों लेकिन प्राचीनकाल में उनकी प्रतिष्ठा इसीलिए थी कि राज्याश्रय से दूर रहकर वे वनों में स्थित अपने आश्रमों में आम बच्चों से लेकर राजकुमारों तक को विद्या दान करते थे. अपने अधीनस्थ न होने के कारण राजा भी ऐसे गुरुकुलों का आदर करते थे.
ऐसा नहीं है कि वर्तमान समय में किसी ने ऐसी पहल ही नहीं की. विनोबा भावे ने अपने पवनार आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने की बहुत कोशिश की और गांधीजी भी अपने आश्रमों के बारे में ऐसा ही चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य से वे इसमें सफल नहीं हो सके. रवींद्रनाथ टैगोर को भी अपने सपनों की संस्था शांतिनिकेतन को चलाने के लिए अर्थोपार्जन में बहुत समय देना पड़ता था.
तो क्या सृजनात्मक लोगों की नियति ही यही है कि या तो अपनी कला बेचकर वे अपने जीवन को आरामदेह बनाएं, या आत्मनिर्भरता का पथ चुनकर खुद कष्ट सहते हुए अपनी कला को गरिमा प्रदान करें?
हार्वर्ड प्रशासन ने हालांकि ट्रम्प प्रशासन के खिलाफ केस दायर किया है और हो सकता है वे जीत भी जाएं, क्योंकि वहां की न्यायपालिका ट्रम्प के दबाव में नहीं है, लेकिन हमारी संस्कृति में इसे ‘जिस थाली में खाना, उसी में छेद करना’ माना जाता रहा है.
तो क्या सत्ता के अहसानों से दूर रहकर ही उसकी आलोचना का अधिकार हासिल होता है?
(30 अप्रैल 2025 को प्रकाशित)
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