जादुई लोक
खत्म होती है दिन की हलचल जब
रात का फैलता है सन्नाटा
एक दुनिया नयी उभरती है
जादुई लोक जैसी लगती है
नींद पलकों में धीरे-धीरे से
स्वप्न बन कर उतरने लगती है
दूर संगीत कहीं बजता है
गीत चुपचाप कोई गाता है
चांद-तारे भी आसमानों में
खेलते हैं छुपम-छुपाई सी!
रात के फिर गहन अंधेरों में
छाने लगती है घोर नीरवता
थक के जब जीव निशाचर सारे
नींद लगती है तो सो जाते हैं
चांद-तारे भी बोरिया-बिस्तर
बांध कर अपने घर को जाते हैं
रात ढलती है, दिन निकलता है
फिर शुरू होती है वही हलचल
जागता हूं तो ऐसा लगता है
रात देखा जो क्या वो सपना था!
रचनाकाल : 20 नवंबर 2024
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