उल्टी गंगा
जो चीजें मजबूरी में करनी पड़ती हैं
मैं स्वेच्छा से जब उन चीजों को करता हूं
तब कर्म वही रहते हैं, फिर भी अर्थ बदलते जाते हैं।
श्रम जबरन करना पड़ता है अपराधी को रह जेलों में
जब अपने मन से वैसी मेहनत करता हूं
तब त्याग-तपस्या जैसी उसमें पावनता आ जाती है।
जब पास नहीं था धन, निर्धनता तब दरिद्रता लगती थी
जब स्वेच्छा से मितव्ययिता को अपनाया तो
संतोष बहुत, कम संसाधन में मिलता है।
मैं उल्टी गंगा बहा, हमेशा इस कोशिश में रहता हूं
गंगासागर की जगह, सभी को गंगोत्री ले चलूं
कि गिरना होता है आरामदेह,
पर ऊपर उठने में अनुपम सुख मिलता है।
रचनाकाल : 14 नवंबर 2024
Comments
Post a Comment