अब लौट चलें
मैं जब भी कोशिश करता हूं
ईश्वर की सर्जित दुनिया में
कुछ दखलंदाजी करने की
सब गुड़-गोबर हो जाता है।
आदत जैसा जब जीवन था
जैसे पशु-पक्षी पेड़ सभी
प्राकृतिक ढंग से जीते हैं
मैं भी कुछ सोचे बिना
उन दिनों सहज भाव से जीता था
पर जब से शुरू विकास किया
चीजों का आविष्कार किया
तकलीफें कम हो गईं
जिंदगी अधिकाधिक
आरामदेह बन गई
सहजता भी लेकिन हो गई खत्म
पहले की तरह प्रकृति की या
मानव से इतर प्राणियों की
अब समझ नहीं पाता भाषा
बेसुरा स्वयं को लगता हूं।
पहले जैसा अज्ञानी तो
अब नहीं दुबारा बन सकता
पर जान-बूझकर भी सबकुछ
पहले जैसा ही सहज चाहता हूं बनना
संकेत समझना ईश्वर के
प्राकृतिक ढंग से ही चलना
मुझको अब अपनी बनावटी
दुनिया से खुद डर लगता है।
रचनाकाल : 1 जून 2024
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