तमसो मा ज्योतिर्गमय


दिल खोल मनाते थे बचपन में दीवाली
बंदूक अगर मिल जाती थी टिकली वाली
तीनों लोकों का सुख मानो मिल जाता था
मां खूब बनाती थी लड्डू-चकली-चूड़ा
कुछ खुलेआम, कुछ लुकाछिपी से लेकिन सब
दो दिन में ही हम बच्चे चट कर जाते थे
मिट्टी के दिये जलाते थे घर-आंगन में
जुगनू जैसे जगमग करते, मन आलोकित कर जाते थे।

दुनिया तबाह करते जाते जो महाविनाशक बम-गोले
अब नकली बंदूकों से भी डर लगता है
ब्लडप्रेशर-शुगर सहित अनगिनती रोगों ने
तन-मन को ऐसा घेर लिया, कुछ नहीं पेट में पचता है
बिजली की लड़ियों से मकान तो चकाचौंध हो जाता है
मन में महसूस नहीं होता पर, पहले जैसा उजलापन
बाहर का सारा अंधकार क्या भीतर सिमटा जाता है?
हे ईश्वर, इस दीवाली मेरे मन के तम को हर लेना!
रचनाकाल : 10-11 नवंबर 2023

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