चक्र


सुबह से शाम होती है
वही दिन फिर निकलता है
वही सब काम करता हूं
अजब बेचैनी होती है
कि जिंदा हूं अगर तो
जिंदगी में फिर नया क्या है!
कि दिन-दिन करके ढलती उम्र
क्या हासिल मगर होता
अगर जो आज हूं, कल भी
नहीं कुछ भी बदलना है
तो यूं ही यंत्रवत, जड़वत
जिये जाने की खातिर ही
जिये जाने में क्या है फिर समझदारी?
रचनाकाल : 14 सितंबर 2023

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक