सांध्य बेला


मैं करता ही रह गया सफर की तैयारी
कब घिर आई यह सांझ, पता कुछ चल न सका
भयभीत सोचता हूं अब मंजिल तक मैं कैसे पहुंचूंगा?
कितनी हसरत से मैंने सारे सरंजाम जुटाये थे
क्या-क्या देखा था ख्वाब कि कैसे दुनिया सारी बदलूंगा
बस मुक्त जरा हो जाऊं अपनी निजी प्राथमिकताओं से
पूरी कर लूं जिम्मेदारी अपनी, अपने ही घर के प्रति
फिर खुद को सेवा में समाज की तन-मन-धन से झोंकूंगा
पर देह हो गई कब जर्जर इस बीच, नहीं यह समझ सका
अब मुक्त हो चुका हूं जब अपने सभी निजी कर्तव्यों से
चुक गई शक्ति भी, कैसे अब बदलूं समाज को
डूब रहा मन, देख डूबते सूरज को
सपनों में देखा किया जिसे बचपन से ही
उस सपनीली दुनिया तक कैसे पहुंचूंगा?
रचनाकाल : 13 मई 2023

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