पूर्ण-अपूर्ण


ऊर्जा अपार थी जब तन में
तब ज्ञात नहीं थी दिशा कि चलना किस पथ पर
अब राह पता है, किंतु थक चुका इतना
दूभर होता जाता चल पाना भी एक कदम।
यह कैसा नियम निराला है
जब होते अनुभवहीन
हमें अनुभव आकर्षित करता है
पर मिलता है जब तक अनुभव
तन साथ छोड़ने लगता है!
शायद है यही चुनौती मानव जीवन की
सबकुछ मिल पाता नहीं किसी को कभी
हमारे ऊपर ही निर्भर है यह
खुश हों कि ग्लास आधी है भरी हमारी
या यह देख दुखी हों आधी है वह खाली
सबको सदा अधूरेपन में जीना पड़ता है!
रचनाकाल : 18 दिसंबर 2022

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