कर्तव्य पथ का यात्री
मैं कभी भी परिश्रम से डरता नहीं
फल मिले इसकी उम्मीद करता नहीं
किंतु थक जाऊं जब इतना ज्यादा कभी
टूट जाये न दम, डर ये लगने लगे
तब मरुस्थल में घनघोर, छाया कोई
दम जरा देर को लेने को मिल सके;
प्यास जब आखिरी हद को छूने लगे
देह से प्राण जाने को आतुर लगे
चंद पानी की बूंदें तभी मिल सकें;
जब हो घनघोर इतना अंधेरा कभी
हाथ अपना ही अपने को सूझे नहीं
कोई तारा तभी टिमटिमाता दिखे;
डूबने जब लगूं तेज धारा में तो
एक तिनके के जितना सहारा मिले
बस है इतनी ही ख्वाहिश जमा कुल मेरी।
मैंने मंजिल की चिंता नहीं की कभी
मुझको मिलता है आनंद चलने में ही
अपने कर्तव्य पथ पर सदा चल सकूं
इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिये।
रचनाकाल : 6 नवंबर 2024
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