किस्मत का रहस्य


जिन दिनों बहुत मैं चौकन्ना सा रहता था
लोगों को ठग लूं भले मगर
कोई न मुझे ठग सकता था
भोले-भाले लोगों को लेकिन
देख मुझे महसूस हुआ
चौकन्ना रहकर भी मैं गहरी
नींद नहीं सो पाता था
वे मगर ठगाये जाने का भय होने पर भी
घोड़े बेच के सोते थे।
तब से मैंने चौकन्ना रहना छोड़ दिया
खुद भले ठगा जाऊं लेकिन
लोगों को ठगने का विचार तक
मन में लाना छोड़ दिया
यह समझ गया जैसा हम रखते मनोभाव
मन स्वयं हमारा हमको उसका
दे देता है उचित दण्ड या पुरस्कार
बाहर का सारा न्याय शास्त्र तो
छाया है या माया है
जो बैठा न्यायाधीश हमारे भीतर है
वह न्याय हमारा करता है
किस्मत जिसको हम कहते हैं
वह इसी न्याय का प्रतिफल है।
रचनाकाल : 19 जून 2024

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