नंबरों की अंधाधुंध दौड़ में गुम होता जा रहा बचपन
एक जमाना था जब परीक्षा में सेकंड डिवीजन आना गर्व की बात समझी जाती थी. थर्ड डिवीजन लाने वाला थोड़ा शर्मिंदा जरूर होता था लेकिन पास हो जाने का संतोष उसे भी होता था. फर्स्ट डिवीजन आने पर तो मुहल्ले भर में मिठाइयां बांटी जाती थीं और ऐसे होनहार सपूत के घरवालों का कद सभी जान-पहचान वालों की नजरों में ऊपर उठ जाता था. अगर डिस्टिंक्शन अर्थात 75 प्रतिशत के ऊपर आ जाए तब तो बंदे के जीनियस होने के बारे में किसी शक-शुबहे की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती थी.
लेकिन उसी जीनियस की मार्कशीट अब अगर उसके नाती-पोते देख लें तो शायद वह शर्मिंदा हुए बिना न रहे, क्योंकि जमाना आज सौ में से सौ अंक लाने का है. 75 तो दूर, 90 प्रतिशत से जरा भी कम नंबर आने पर बच्चों का चेहरा ऐसे लटक जाता है कि समझ में नहीं आता उन्हें बधाई दी जाए या सांत्वना! यह शोध का विषय हो सकता है कि दुनिया में अपनी उपलब्धियों का झंडा गाड़ने वाले वैज्ञानिकों के स्कूल-काॅलेजों में कितने नंबर आते थे! वैसे सुनने में तो यही आता है कि आइंस्टीन और रामानुजन जैसे जीनियस वैज्ञानिक भी अपने छात्र जीवन में अधिकतर विषयों में फेल हो जाया करते थे. सच तो यह है कि अधिकांश अभिभावकों को तब चिंता ही नहीं होती थी कि उनका बेटा पढ़ाई कर रहा है या मटरगश्ती.
आज जमाना बदल रहा है. बच्चा ढाई-तीन साल का हुआ नहीं कि उसका एक दिन भी ‘बर्बाद’ होना हमें पसंद नहीं! ...और नर्सरी से लेकर नौकरी लगने तक जो एक दौड़ शुरू होती है, उसमें छात्रों की आंखें अर्जुन की तरह सिर्फ एक ही लक्ष्य पर टिकी रहती हैं- 90 प्रतिशत पार! इस दौड़ में बचपन पता नहीं कहां गुम हो जाता है. आंखों में मोटा-मोटा चश्मा लग जाता है और शरीर इतना नाजुक हो जाता है कि जरा सा मौसम बदला नहीं कि तबियत बिगड़ना शुरू! आज की पीढ़ी के कितने बच्चे ऐसे होंगे जो नदी-तालाब में घंटों तैरे हों या पेड़ों पर उछल-फांद की हो! धूल-मिट्टी से दूर रखकर हमने उन्हें स्वच्छता की नई परिभाषा तो सिखा दी, पर उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी खो दी.
नंबरों की अंधाधुंध दौड़ में, जरा ठहर कर हमें सोचने की जरूरत है कि बच्चों को एक तरफ तो हम अंकों के एवरेस्ट शिखर को छूने के लिए प्रेरित कर रहे होते हैं लेकिन दूसरी ओर जीवन के अन्य क्षेत्रों की अनदेखी करके उसे इतना कमजोर तो नहीं बना रहे कि शिखर से जरा भी कदम डगमगाने पर वह लुढ़कते हुए ऐसी गहरी घाटी में जा गिरे कि उससे उबरने की उसमें ताकत ही न बचे!
हमें समझना होगा कि विद्यार्थी काल बच्चों के सर्वांगीण विकास का समय होता है, क्योंकि जिंदगी एकांगी नहीं होती. आगे चलकर उन्हें हर तरह की परिस्थिति से जूझना पड़ेगा. बेशक परीक्षा में शत-प्रतिशत अंक लाना बड़ी उपलब्धि है लेकिन जिंदगी शत-प्रतिशत जीना उससे कहीं बड़ी उपलब्धि है.
(19 जून 2024 को प्रकाशित)
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