सर्व दल समभाव का सपना और उम्मीद जगाते बयान


कहते हैं देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने आजादी के बाद देश की पहली कैबिनेट में अपने कई धुर विरोधी नेताओं को भी स्थान दिया था. स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर हों या भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी, वे कांग्रेस की नीतियों के समर्थक नहीं थे और उसकी अक्सर आलोचना करते थे. फिर भी कांग्रेस ने उनकी प्रतिभा को देखकर उन्हें मंत्री बनाया था. मोदी 3.0 कैबिनेट में भी भाजपा के कई पूर्व विरोधी दलों के नेताओं को मंत्री बनाया गया है. तो क्या लोकतंत्र का सुनहरा युग फिर से लौट रहा है? फर्क लेकिन यह है कि नेहरूजी ने अपने दल के पास भारी बहुमत होते हुए भी ऐसा किया, जबकि भाजपा को मजबूरी में ऐसा करना पड़ रहा है. परंतु खुशी से किया जाए या मजबूरी से, जनता शायद चाहती है कि ऐसा ही किया जाए, और इसीलिए उसने इस बार अभूतपर्व ढंग से जनादेश दिया है. आखिर राजनेता रूपी सारे रत्न सत्तारूढ़ दल की खान से ही तो नहीं निकलते! मोदी सरकार ने पिछले दो कार्यकालों में भले ही अपने काबिल मंत्रियों के बल पर काबिल-ए-तारीफ काम किया हो, लेकिन ऐसा क्यों सोचा जाना चाहिए कि विरोधी दलों के नेताओं को जेल में डालकर ही लोकतंत्र को मजबूत किया जा सकता है या किसी दल का सफाया करने की कामना रखना ही लोकतंत्र के लिए शुभ है! उन्हें भी निर्वाचित तो जनता ने ही किया है, फिर क्यों उनकी प्रतिभा का उपयोग जनतंत्र के लिए न किया जाए! जो काम नेता खुशी-खुशी न कर सके, उसे जनता शायद अब मजबूरी में करवाना चाहती है! कितना सुंदर हो यदि चुनाव पांच साल में एक-दो या तीन महीने तक ही सीमित रहे और बाकी पौने पांच साल तक सारे दल शत्रुता भुलाकर देश के विकास के लिए मिल-जुल कर कार्य करें! एक ऐसे दौर में, जबकि चुनावी चुनावी दुश्मनी बारहों महीने निभाई जाती हो और पार्टियों को देश की भलाई की जगह अपने दल की भलाई की ज्यादा चिंता रहती हो, हो सकता है ऐसा सोचना दिवास्वप्न लगे, लेकिन सपने ही तो हैं जो बेहतरी की उम्मीद जगाए रखते हैं!
उम्मीद तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान भी जगाता है कि ‘‘विपक्ष को ‘विरोधी पक्ष’ की जगह ‘प्रतिपक्ष’ कहना चाहिए.’’ विरोधी पक्ष और प्रतिपक्ष शब्द में कदाचित वही फर्क है जो ‘निंदक’ और ‘आलोचक’ में है. सहमति से देश चलाने की परंपरा का जब वे स्मरण रखने को कहते हैं तो लगता है कि सर्व दल समभाव के सपने को साकार करना असम्भव नहीं है. आलोचना जब भीतर से हो तो उसका असर पड़ने की उम्मीद कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है.
(अप्रकाशित)

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