परम सत्य की चाह


मन जोगी जैसा पर्वत-जंगल भटका करता है
यह किसने श्राप दिया मुझको, बेचैन हमेशा रहता हूं
जितनी जुटती हैं सुविधाएं उतनी ही पीड़ा सहता हूं 
जो जितना रहता निकट उसी को ताप प्रखर क्यों सहना पड़ता है?

एकाकी जलता रहता हूं
जो मित्र चाहते बनना, उनको शत्रु बनाता रहता हूं
यह कैसा है मेरा स्वभाव, निष्पक्ष न्याय की कोशिश में
अपने को, अपनों को ही सबसे ज्यादा पीड़ित करता हूं!

है नहीं कौरवों का खेमा मेरा अपना
पर अंगराज के अंतर्मन की पीड़ा व्याकुल करती है
ठहरा पाता हूं किसी तरह भी सही नहीं जयद्रथ वध को
मरते बाली की आंखों का विस्मय क्यों मारक लगता है?

मैं रावण या दुर्योधन की संस्कृति का नहीं पक्षधर हूं
पर राम, कृष्ण का हल्का सा भी छल मुझको लगता असह्य
यदि जीत नहीं मिल सकती छल के बिना, हमेशा लड़ते रहना चाहूंगा
मन इसीलिये अभिशापित सा शायद, खुद से ही हरदम लड़ता रहता है!
रचनाकाल : 12 सितंबर 2023

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