बुराई की जड़


पहले जब मैं छिपकर करता था पाप
नहीं दुनिया को चल पाता था उसका पता
बहुत खुश होता था तब मन ही मन
भोगनी पड़ी कोई भी मुझको सजा नहीं
दुनिया की नजरों में शरीफ ही बना रहा।
पर अपनी नजरों से बच पाता था मेरा अपराध नहीं
मिल जाती कोई सजा अगर तो
हो जाता अपराधबोध शायद समाप्त
इसके बजाय, अपनी नजरों में गिर जाने का दण्ड
मुझे तब बहुत भयानक लगता था।
इसलिये दूर होता ही गया बुराई से
मन जैसे-जैसे उजला होता गया
दाग हल्का सा भी लगने पर भी
पीड़ा मन में होने लगती थी असहनीय।
अब तो ऐसी हालत है मन में मेरे
उठता है जब कोई दुर्विचार
तत्काल सजा उसकी खुद को दे देता हूं
जड़ जमने ही देता हूं नहीं बुराई की
यह सीख गया हूं अनुभव से
जितनी ही होगी देर सफाई करने में
उतना ही कचरा भीतर बढ़ता जायेगा
मन धीरे-धीरे इतना ज्यादा मैला होता जायेगा
हो जायेगा अपराधबोध सब खत्म
बुराई बन जायेगी स्वाभाविक
दलदल में जीना ही स्वभाव हो जायेगा।
रचनाकाल : 19 जून 2023

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