अंतिम हद
मैं अक्सर अपने बूते से बाहर का बोझ उठाता हूं
ईश्वर मुझ पर झल्लाता है, जब नहीं मानता
दण्डित करने की भी कोशिश करता है
कर देता है अस्वस्थ, काम जब हद से बाहर करता हूं।
रुक जाता हूं तब जरा देर की खातिर, ले लेता थोड़ा विश्राम
कि हद से बाहर निकल न जाये गुस्सा ईश्वर का
हो जाय न सबकुछ तहस-नहस
इसलिये लचीलापन रखकर
तब कदम-दो कदम पीछे भी हट जाता हूं।
पर जैसे ही तन लगने लगता स्वस्थ
कि फिर से दुस्साहस हो जाते मेरे शुरू
सहनसीमा की अंतिम हद तक तन-मन को फिर से ले जाता हूं।
दरअसल काम है इतना ज्यादा, नहीं बैठ पाता हूं ज्यादा देर
शक्ति संचय की करते हुए प्रतीक्षा
जितनी भी है पास जमा-पूंजी तन-मन की
कुछ भी नहीं बचा कर रखता, सबकुछ अर्पण करता हूं
ईश्वर करता है क्रोध, जानलेवा खतरों से लेकिन रक्षा करता है
मैं भी करता सहने की उसकी सीमा का सम्मान
मौत से लुकाछिपी के बीच लांघता नहीं कभी सीमा को
हद में रहकर जीवन को उसकी अंतिम हद तक ले जाता हूं।
रचनाकाल : 26 मार्च 2023
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