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किताबी और व्यावहारिक ज्ञान की दूरी पाटने के लिए कब बनेंगे पुल ?

 हमारे भारत देश में डिग्रीधारी बेरोजगारों की भरमार है, कितनी ही बार ऐसी खबरें सुर्खियों में आ चुकी हैं कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी तक के पद के लिए बीटेक, एमटेक, एमबीए जैसी बड़ी-बड़ी डिग्रियों वाले लोग भी आवेदन करते हैं. लेकिन अब चीन से खबर आ रही है कि वहां भी डिग्रीधारी बेरोजगार बढ़ रहे हैं और नौकरियां घट रही हैं, इसलिए चीन सरकार अपने युवाओं को व्यावहारिक कौशल देने के लिए बड़े पैमाने पर बदलाव कर रही है. चूंकि वहां 16-24 आयुवर्ग में बेरोजगारी दर 17 प्रतिशत तक बढ़ गई है, इसलिए अब सरकार विश्वविद्यालयों से डिग्री ले चुके छात्रों को भी दोबारा तकनीकी प्रशिक्षण लेने के लिए प्रोत्साहित कर रही है.  प्राचीनकाल के गुरुकुलों में गुरु अपने शिष्यों से पहले कुछ साल तो कसकर काम लेते थे और औपचारिक शिक्षा अंत में जाकर ही देते थे. सहपाठी कृष्ण और सुदामा के गुरुपत्नी की आज्ञा से जंगल में जलाऊ लकड़ी लेने जाने की जगप्रसिद्ध घटना हो, बारिश में खेत की टूटी मेड़ से पानी रोकने के लिए खुद लेट जाने वाले आरुणि उर्फ उद्दालक की कथा हो या गुरु की आज्ञा के पालन के लिए मृत्यु की कगार तक पहुंच गए उपमन्यु का दृष्ट...

दिखावे की भेंट चढ़ती छोटी-छोटी खुशियां और जड़ जमाती बुराइयां

 मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल पांच जिलों में आदिवासियों ने शादी-ब्याह में फिजूलखर्ची रोकने के लिए ‘दारू-डीजे-दहेज’ फ्री (मिशन डी-3) नामक सराहनीय पहल शुरू की है, जिससे चाहे तो पूरा देश प्रेरणा ले सकता है. अलीराजपुर,  धार, झाबुआ, बड़वानी और खरगोन जिलों में पिछले दो वर्षों में हुई चार हजार से अधिक शादियों में संबंधित परिवारों के करोड़ों रुपए बचे हैं. दरअसल डीजे, दारू और दहेज सिर्फ आदिवासियों की ही समस्या नहीं है बल्कि पूरा देश इससे जूझ रहा है. हालांकि आदिवासी समाज में जन्म, विवाह और मृत्यु के कार्यक्रमों में प्राय: शराब पीने-पिलाने का चलन रहा है, लेकिन अब समाज के जागरूक लोगों ने शराब से होने वाले नुकसान को देखते हुए इससे दूर रहने का फैसला किया है. इसके अलावा डीजे की कानफोड़ू आवाज पर रोक लगाते हुए, शादी समारोह में केवल पारंपरिक वाद्य यंत्र ही बजाए जा रहे हैं, जिससे लोग अपनी परंपरा से पुनः जुड़ रहे हैं. जहां तक दहेज का सवाल है तो आदिवासी समाज में इसकी प्रथा नहीं रही है लेकिन दुर्भाग्य से आधुनिक समाज की देखा-देखी उनमें भी यह बुराई अपने पैर जमाने लगी थी. इसलिए आदिवासी समाज के कर्ता-धर्त...

दु:ख-कष्टों का सुख

तकलीफों से जब डरता था जीवन आसान बनाने की कोशिश में हरदम रहता था पर सुख जितना ही मिलता था उतना ही भीतर पथराता कुछ लगता था पहले के दुष्कर जीवन की यादें अद्भुत सी लगती थीं। इसलिये नहीं कठिनाई को अब पीठ दिखाया करता हूं कितनी भी विकट परिस्थिति हो सामना सभी का करता हूं मजबूरी में सहने पर जो दु:ख-कष्ट भयानक लगते थे अब स्वेच्छा से सह कर उनको खुश रहता हूं लोगों को जैसे सुखद पुराने दिन की स्मृतियां लगती हैं मुझको वैसे ही सपनीला अब वर्तमान भी लगता है। रचनाकाल : 21 नवंबर 2025

शराब : जब मांझी खुद ही नाव डुबाए, पार लगाए कौन ?

 हाल ही में एक हैरान कर देने वाली रिपोर्ट आई कि दुनिया में जहां शराब की खपत तेजी से घटती जा रही है, वहीं भारत में यह बेतहाशा बढ़ रही है. अमेरिका, यूरोप और चीन जैसे बड़े बाजारों में जहां शराब के मशहूर ब्रांड्‌स के शेयर 75 प्रतिशत तक गिर चुके हैं, वहीं भारत में देसी शराब कंपनियों के शेयर चौदह सौ प्रतिशत तक चढ़े हैं! दुनिया में खपत घटने का कारण जहां स्वास्थ्य जागरूकता, बदलती आदतों और महंगाई के चलते खर्च करने की क्षमता में कमी को बताया जा रहा है, वहीं भारत में खपत बढ़ने के जो कारण सामने आए, वे हतप्रभ कर देने वाले हैं. फ्यूचर मार्केट इनसाइट्‌स के अनुसार, देश की 60 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयुवर्ग की होने से शराब बाजार बढ़ रहा है. यानी जिस युवा शक्ति को हम वरदान समझ रहे थे, वह नशे में डूबती जा रही है! इससे भी ज्यादा स्तब्ध कर देने वाली डब्ल्यूएचओ की ग्लोबल रिपोर्ट है, जिसके अनुसार भारत में महिलाओं में शराब की खपत पिछले दो दशकों में पचास प्रतिशत बढ़ी है. उधर स्टेटिस्टा और रिपोर्टलिंकर रिसर्च कहती है कि भारत में औसत आय में तीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिससे ब्रांडेड व प्रीमियम शराब की ...

घर-बाहर का फर्क

मैं घर में रखता था सबकी सुख-सुविधाओं का ध्यान मगर बाहर जाते ही चिंता अपनी करने में लग जाता था घर में मुझको बदले में मिलता खूब मान-सम्मान मगर जब भरी भीड़ में सीट झपटता बस में तो चालाक लोमड़ी जैसा सबकी नजरों में बन जाता था। इसलिये दौड़ने की ताकत होने पर भी अब लाइन में सबसे पीछे ही लगता हूं घर में जैसे रखता हूं सबका ध्यान ठीक वैसा ही सबका बाहर भी अब रखता हूं तन को थोड़ी होती तो है तकलीफ, मगर मन को सुकून उससे भी ज्यादा मिलता है चौकन्ना रहता था, अब चेहरा खिला-खिला सा रहता है हो भले क्षीण कितना ही लेकिन बाहर भी अब घर जैसा ही फर्क नजर तो आता है! रचनाकाल : 16 नवंबर 2025

मौन की शक्ति

पहले मुझको यह लगता था हम बातचीत से मसले हल कर सकते हैं मीठी वाणी से सबका दिल हर सकते हैं फिर क्यों इतना सा काम नहीं कर पाते हैं कटु शब्दों से झगड़ा फैलाते जाते हैं? पर समझ बढ़ी तब यह जाना शब्दों में खुद की शक्ति बहुत कम होती है जो करते हैं हम उसकी प्रतिध्वनि होती है हो काम हमारा अगर बुरा तो चिकनी-चुपड़ी बातों से भी नहीं फायदा होता है। इसलिये मौन अब रहता हूं जो कहना होता है अपने कामों के जरिये कहता हूं बातें लोगों को झूठी भी लग सकती हैं पर मौन कभी भी झूठ बोलता नहीं असर उसका लोगों के दिल पर सीधा होता है। रचनाकाल : 14 नवंबर 2025

दर्शक तो हम बन गए, मगर सर्जक के सुख को गंवा दिया !

 अमेरिका के लिटिल रॉक की निवासी एलिस जॉनसन को जब जिंदगी बहुत बोझिल लगने लगी तो अपने सत्तरवें जन्मदिन पर उन्होंने निश्चय किया कि वे अगले एक साल में 70 नई क्रियेटिव चीजें करेंगी. वे चाहती थीं कि हर अनुभव उनके लिए नया हो, इसलिए सीखने की सूची में अलग-अलग विषयों को रखा- जैसे कुछ नया खाना बनाना सीखना, कोई नई कला सीखना आदि. साल बीतते न बीतते उन्होंने पाया कि उनकी जिंदगी एकदम बदल गई है. वे कहती हैं, ‘हम खुद को बहुत बहाने देते हैं, मैंने भी दिए. अब नहीं देती.’ अमेरिका के ही कारमेन डेल ओरेफिस ने 1945 में 14 साल की उम्र में मॉडलिंग करियर की शुरुआत की थी, और आज 94 साल की उम्र में भी वे फैशन की दुनिया में सक्रिय हैं. कारमेन का मानना है कि काम करते रहना ही सफलता की कुंजी है. आयरलैंड के 89 वर्षीय आयरिश हार्प मेकर नोएल एंडरसन ने 82 वर्ष की उम्र में वीणा बनाना सीखा था. वे पिछले सात वर्षों में 18 वीणा बना चुके हैं तथा इन दिनों 19वीं सदी की एक खास डिजाइन पर काम कर रहे हैं.  महापुरुषों की कहानियां पढ़ें तो हम पाएंगे कि उन्होंने अपने जीवन के अंत तक खुद को सृजनात्मक बनाए रखा था. रवींद्रनाथ टैगोर ने...