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फलती-फूलती दीमकें और खोखली होती सरकारी योजनाएं

 बढ़ती बीमारियों और बीमा कंपनियों के महंगे होते प्रीमियमों को देखते हुए सरकार द्वारा लागू की गई आयुष्मान भारत योजना प्रशंसनीय मानी जा रही थी. हालांकि निजी अस्पताल इसमें बहुत रुचि नहीं दिखाते हैं क्योंकि सरकारी योजना होने से क्लेम ऑनलाइन मंजूर करवाने की प्रक्रिया जटिल होती है, लेकिन अहमदाबाद में एक निजी अस्पताल ने जिस तरह आयुष्मान कार्ड से पैसे ऐंठने के लिए सात लोगों की जबरन एंजियोप्लास्टी कर दी और उसमें दो लोगों की जान भी चली गई, उससे इस योजना के प्रभावी होने को लेकर गहरी चिंता पैदा हो गई है. यहां तक कि अस्पताल द्वारा आयोजित हेल्थ कैम्प में पहुंचे मरीजों के साथ उनके परिजनों के नहीं होने और उनकी सहमति नहीं मिलने पर भी आनन-फानन में आपरेशन कर दिया गया और अस्पताल को क्लेम के पैसे भी तत्काल मिल गए! मरीजों की मौत के बाद परिजनों के हंगामे से मामला उजागर हुआ और अब पता चल रहा है कि उस अस्पताल में छह महीनों में साढ़े तीन सौ से अधिक लोगों की एंजियोग्राफी की गई है! वैसे तो मामले की विस्तृत जांच होने और उसकी रिपोर्ट आने पर ही असलियत पता चलेगी, लेकिन यह शंका तो पैदा होती ही है कि किसी निजी अस्पताल द

हार या जीत ?

लेने का ही जब सुख हम जाना करते हैं तब देने में अतिशय कंजूसी करते हैं पर देने का सुख जिनको होता पता किसी से लेने में शर्मिंदा अनुभव करते हैं। वे भोले भले रहे हों लेकिन बेवकूफ थे नहीं जान भी बाजी पर जो लगा वचन का अपने पालन करते थे जो हानि उठाकर भी अपनी सच के ही पथ पर चलते थे सुख अनुपम उनको मिलता था ईमानदार रह करके कष्ट उठाने में जो कभी नहीं मिल सकता बेईमानों को। जो सीधे इतने ज्यादा हैं ठग ले कोई या कर ले छल उस पर भी यदि खुश रहते हैं; जो छलता है या ठगता है फिर भी उद्वेलित रहता है तो जीत भला है किसकी इसमें और हार यह किसकी है! रचनाकाल : 17-18 नवंबर 2024

मेहनत की महिमा

जब सागर इतना तपता है बन भाप हवा में उड़ता है तब मानसून का बादल बनकर पानी बरसा करता है। जब चिल्ला जाड़ा पड़ता है तब ही मिठास आ पाती है वरना कश्मीरी सेब भुसभुसी बनकर ही रह जाती है। चौदह वर्षों का सह कर ही वनवास राम भगवान रूप बन पाते हैं वन-वन में मारे फिरते हैं जो पाण्डव वे ही युद्ध महाभारत का जय कर पाते हैं। जड़-चेतन जो भी जितना ज्यादा सहता है उतना ही अधिक निखरता है दु:ख-कष्ट, परिश्रम को ही हरदम समय परिष्कृत करता है।  आसानी से यदि इसीलिये जब मुझको कुछ भी मिलता है करके मेहनत घनघोर, जरा असफलता हासिल करता हूं जो मिली सफलता मुझे ताकि खोखली नहीं होने पाये। रचनाकाल : 17 नवंबर 2024

उल्टी गंगा

जो चीजें मजबूरी में करनी पड़ती हैं मैं स्वेच्छा से जब उन चीजों को करता हूं तब कर्म वही रहते हैं, फिर भी अर्थ बदलते जाते हैं। श्रम जबरन करना पड़ता है अपराधी को रह जेलों में जब अपने मन से वैसी मेहनत करता हूं तब त्याग-तपस्या जैसी उसमें पावनता आ जाती है। जब पास नहीं था धन, निर्धनता तब दरिद्रता लगती थी जब स्वेच्छा से मितव्ययिता को अपनाया तो संतोष बहुत, कम संसाधन में मिलता है। मैं उल्टी गंगा बहा, हमेशा इस कोशिश में रहता हूं गंगासागर की जगह, सभी को गंगोत्री ले चलूं कि गिरना होता है आरामदेह, पर ऊपर उठने में अनुपम सुख मिलता है। रचनाकाल : 14 नवंबर 2024

महंगे-सस्ते का मनोविज्ञान और ठगी का अभिजात्य तरीका

 बचपन में, आसमान में हवाई जहाज की आवाज सुनते ही हम बच्चे दौड़कर आंगन या अन्य खुली जगह में पहुंच जाते और कौतूहल के साथ विमान को उड़ते तब तक देखते रहते, जब तक कि वह नजरों से ओझल नहीं हो जाता था.  आज विमान यात्रा विलासिता नहीं रह गई है, आवश्यकता बनती जा रही है और अब मध्यमवर्गीयों की पहुंच में भी आ गई है. विमान से यात्रा करने की जिनकी हैसियत नहीं भी है, उन्हें भी हवाई जहाज अब अजूबा नहीं लगते. लेकिन हाल ही में आई यह खबर जरूर अजूबा लगती है कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) हवाई अड्डों पर किफायती जोन अनिवार्य करने जा रहा है ताकि यात्रियों को एयरपोर्ट पर खाने-पीने की चीजें किफायती दरों पर मिल सकें. सस्ते की परिभाषा यह है कि डेढ़-दो सौ रुपए में मिलने वाली चाय अब 50-60 रुपए में मिल सकेगी और खाने का बाकी सामान भी इसी अनुपात में सस्ता मिलेगा.  वे दिन अब दादियों-नानियों के किस्सों की तरह हवा हुए जब रुपयों नहीं बल्कि पैसों के बदले खाने-पीने की चीजें भरपूर मिल जाया करती थीं. अब तो महंगाई ने इतना हलकान कर डाला है कि तुअर दाल के दाम दो सौ रुपए पार कर जाने के बाद डेढ़ सौ रुपए पर आते हैं तो वह सस्ती ल

कर्तव्य पथ का यात्री

मैं कभी भी परिश्रम से डरता नहीं फल मिले इसकी उम्मीद करता नहीं किंतु थक जाऊं जब इतना ज्यादा कभी टूट जाये न दम, डर ये लगने लगे तब मरुस्थल में घनघोर, छाया कोई दम जरा देर को लेने को मिल सके; प्यास जब आखिरी हद को छूने लगे देह से प्राण जाने को आतुर लगे चंद पानी की बूंदें तभी मिल सकें; जब हो घनघोर इतना अंधेरा कभी हाथ अपना ही अपने को सूझे नहीं कोई तारा तभी टिमटिमाता दिखे; डूबने जब लगूं तेज धारा में तो एक तिनके के जितना सहारा मिले बस है इतनी ही ख्वाहिश जमा कुल मेरी। मैंने मंजिल की चिंता नहीं की कभी मुझको मिलता है आनंद चलने में ही अपने कर्तव्य पथ पर सदा चल सकूं इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिये। रचनाकाल : 6 नवंबर 2024

बचपन और सयानापन

मैं था बचपन में जिद्दी बहुत ही बड़ा ठान लेता था जो, टस से मस उससे होता नहीं था कभी पर दिखाई किसी ने न मुझको दिशा मेरा हठ जो लगन बनने का बीज था वो कुसंगत में लत बन के ही रह गया! गाय दुहता था जब, करते तारीफ सब मैं हूं माहिर अधिक दूध दुह पाने में मुझको क्यूं ये किसी ने बताया नहीं भूखा रहता है बछड़ा बिना दूध के! था चपल इतना ज्यादा कि पल भर में ही पेड़ की फुनगियों तक पहुंच जाता था शूरता पर दिखाने के चक्कर में जब तोड़ लेता था फल पक्के-कच्चे सभी तब किसी ने ये समझाया ही क्यों नहीं तोड़ना फल को कच्चा नहीं चाहिये! जब था छोटा, दिवाली के त्यौहार पर खेलता था बमों और बंदूक से कल्पना ही नहीं तब किया ये कभी जो सयाने हैं बंदूक-बम से वे भी खून से लोगों के खेलते हैं होली! मैं हूं व्याकुल कि बचपन में मिलती दिशा मैं भी दुनिया में इंसान बन बेहतर बेहतर एक दुनिया बना सकता था झूठे अभिमान से दूर रह सकता था! इसलिये खुद को रखता हूं हरदम सजग हम सयानों की नादानियों से कहीं कोई बचपन कहीं फिर न बर्बाद हो हम सयाने तो अच्छे नहीं बन सके पर नई पीढ़ियों पर हमारी कुसंगत की छाया न हो! रचनाकाल : 29 अक्टूबर 2024