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...हर बार जनम लेंगे

जब साल बीतने लगता है शर्मिंदा होने लगता हूं संकल्प लिये थे पहले जो कुछ भी तो पूरे नहीं हुए! तो नये साल के अवसर पर क्या कोई नव-संकल्प न लूं जब नियति हारना ही है तो कोशिश ही क्यों फिर व्यर्थ करूं? पर हार मानकर दुनिया में कब भला कहीं कुछ रुकता है आती अंधियारी रात रोज दिन फिर भी रोज निकलता है मरना है सत्य अटल फिर भी जीवन तो जारी रहता है जब हार मानती नहीं प्रकृति फिर मैं निराश क्यों हो जाऊं? इसलिये सबक ले भूलों से शुरुआत नई फिर करता हूं क्या होगा हश्र, नहीं इसकी चिंता में बैठा रहता हूं मरने का डर यदि मन में हो तो इस दुनिया में बच्चों का क्या कभी जन्म हो पायेगा! जीवन बनकर क्या बोझ नहीं रह जायेगा? (रचनाकाल : 24-26 दिसंबर 2025)

पुरानी पड़ती पीढ़ी से क्यों बढ़ने लगता है नई पीढ़ी का टकराव ?

 इन दिनों दुनियाभर में सरकारों के खिलाफ जेन-जी के विरोध प्रदर्शनों की खबरें सुर्खियां बन रही हैं. बांग्लादेश, नेपाल में तख्तापलट की खबरें तो पुरानी हो चुकी हैं, कई अन्य देशों में भी नवयुवकों का हुजूम सड़कों पर उमड़ रहा है. एक-दो देशों में सरकारों के खिलाफ विद्रोह हो तो समझ में आता है कि वहां के शासक निरंकुश होंगे, लेकिन दुनियाभर में अगर यही प्रवृत्ति देखने को मिल रही हो तो इसे क्या समझें? क्या पूरी दुनिया की सरकारें अचानक तानाशाह बन गई हैं?  कदाचित यह पीढ़ीगत सोच का फर्क है. आज हम जिसे ‘जेन-जी’ कह रहे हैं वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुंचे युवा हैं जो सुनहरे भविष्य के सपने देखते हैं, परंतु जमीनी हकीकत को जब उसके विपरीत पाते हैं तो इसके लिए जिम्मेदार लोगों से विद्रोह कर बैठते हैं. ऐसा नहीं है कि दुनिया में नवयुवाओं की यह पहली बैच है जिसे लगता है कि उसके सपनों पर कुठाराघात हुआ है. सच तो यह है कि जिस पीढ़ी के खिलाफ आज जेन-जी विद्रोह कर रही है, अपनी किशोरावस्था में उसने भी ऐसे ही सपने देखे थे और अपनी अग्रज पीढ़ी के खिलाफ उसके मन में भी ऐसा ही आक्रोश था, लेकिन तब वह इस स्थिति में नहीं थ...

जेन-जी के सपने

उस दिन जब मैं मिला जेन-जी पीढ़ी से जब सुनी शिकायत मेरी पीढ़ी के प्रति तो सपने अपने वे याद आये जो पहले देखा करता था संवेदनशील कभी मैं भी तो इन लोगों जैसा ही था! थी मगर शिकायत जो भी पिछली पीढ़ी से मेरी पीढ़ी में भी सब दुर्गुण वही समाता गया न जाने कैसे चमड़ी मोटी होती गई घाघ हे ईश्वर कैसे मैं भी खुद बन गया! अब नहीं शिकायत मुझे दूसरे लोगों से खुद अपने से ही लड़ता हूं रुक जाता है तो पानी सड़ने लगता है सो आत्मनिरीक्षण हरदम करता रहता हूं नई पीढ़ी की आंखों में पलते सपने जो अपनी पीढ़ी के भी खिलाफ जाकर उनको साकार हमेशा करने की कोशिश में ही बस रहता हूं। रचनाकाल :  19 दिसंबर 2025

स्वीकारोक्ति

हमको बचपन में ऐसे मिले थे बड़े जो रुकावट नहीं रास्ते के बने फूल खिलते हैैं जैसे सहज भाव से हमको भी खेलने और खिलने दिया माफ कर देना बच्चो हमारे, हमें हम तुम्हारे न बन पाये वैसे बड़े। हमने बचपन में कीं जो मटरगश्तियां खूब खतरों से खेलीं कलाबाजियां होता रोमांच यादों से भी आज जो वैसे दुस्साहसों से बचाया तुम्हे घर के भीतर रखा सेफ ही जोन में किंतु कमजोर भी तो इसी से किया! हमने क्या-क्या बनाना न चाहा तुम्हें किंतु इच्छा न जानी तुम्हारी कभी था मिला हमको आकाश उन्मुक्त पर बांध कर डोर ही तुमको उड़ने दिया माफ कर देना बच्चो हमारे, हमें हम न बन पाये अच्छे तुम्हारे बड़े! रचनाकाल : 15 दिसंबर 2025

सोशल मीडिया बैन कर देने भर से कैसे बचेगा बचपन ?

 आखिर ऑस्ट्रेलिया में 16 साल से छोटे बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन हो ही गया और पिछले हफ्ते वहां लाखों किशोरों के सोशल मीडिया अकाउंट बंद हो गए. ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री का कहना है कि बच्चे अब अपने बचपन को जी सकेंगे.  लेकिन अपना बचपन जीने के लिए हमने बच्चों के पास साधन ही क्या छोड़ा है? दुनिया में ऐसे बच्चे अपवादस्वरूप ही होंगे जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल न करते हों. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि 2018 से 2022 के बीच किशोरों में सोशल मीडिया की लत और अनियंत्रित उपयोग सात से बढ़कर 11 प्रतिशत हो गया. यह आंकड़ा तीन साल पहले का है और आज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. शायद यही कारण है कि बच्चों के इन प्रतिबंधों से बचने के तरीके चोरी-छिपे खोजने और अत्यधिक जोखिम भरी साइटों के चंगुल में फंसने की आशंका जताई जा रही है.  तो क्या इस डर से बच्चों को सोशल मीडिया का शिकार होते रहने देना चाहिए? अमेरिका से एक खबर है कि वहां माता-पिता अपने बच्चों को ‘जंगल कैम्प’ उपहार में दे रहे हैं अर्थात उन्हें खिलौने गिफ्ट करने के बजाय जंगल कैम्पों में भेज रहे हैं. इसे ‘एक्सपीरियंस गिफ्टिंग’ का ...

अजन्मे की मौत

वैसे तो मुझे अपनी सारी कविताएं प्रिय हैं पर रह गईं जो अजन्मी ही उनकी टीस से मन व्याकुल हो जाता है। दरअसल हम मनुष्य सिर्फ संभावनाएं देखते हैं और जिसका तो जन्म लेने के पहले ही अंत हो गया किसको पता है कि उसके भीतर कितनी अद्‌भुत संभावनाएं रही होंगी जिन्हें मौका ही नहीं मिला साकार होने का! लेकिन मरने वाले भी शायद दे जाते हैं खाद-पानी सौंप जाते हैं अपनी जिम्मेदारी आगत को रखते हुए मन में यह हसरत कि पूरे हो सकेंगे उनके सपने और जन्म लेती है जब अगली कविता तो ऋणी होती है वह उस अजन्मी कविता की! ...सहसा ही कौंधती है मन में बिजली सी कि कहीं मेरा जन्म लेना भी तो ऋणी नहीं है अजन्मे बच्चों की मौत का! रचनाकाल : 10-14 दिसंबर 2025

जब सभी प्रशिक्षण लेते हैं, फिर नेता क्यों पुत्रों को वंचित रखते हैं ?

 पिछले दिनों खबर आई कि हजारों करोड़ की दौलत के मालिक यूएई के अरबपति शेख खलफ अल हब्तूर के बेटे मुहम्मद ने होटल में बर्तन धोने, ग्राहकों के बिस्तर ठीक करने, झाड़ू-पोंछा लगाने और वेटर का काम किया है. पिता हब्तूर का कहना है, ‘करियर सिर्फ डिग्री से नहीं बनता, असली सीख फील्ड से मिलती है, इसलिए होटल मैनेजमेंट की डिग्री हासिल करने के बावजूद मैंने अपने बेटे को सीधे डायरेक्टर की कुर्सी पर नहीं बैठाया.’ अपने बेटे को जमीन से जोड़ने वाले शेख हब्तूर अकेले नहीं हैं. अमेरिका के अरबपति वकील जॉन मॉर्गन के बेटे डैनियल मॉर्गन ने जब बोस्टन मार्केट में नौकरी की तो उनके कामों में बर्तन धोना भी शामिल था. अरबपति मार्क क्यूबन भी अपने बच्चों से घर के बर्तन धोने सहित अन्य काम कराते हैं.  पुराने जमाने में राजा-महाराजा भी राजकुमारों को राजपाट सौंपने से पहले सर्वगुणसम्पन्न बनाने की कोशिश करते थे. विद्याध्ययन के लिए जब उन्हें आश्रमों में भेजा जाता तो गुरु उनके और आम शिष्यों के बीच कोई भेद नहीं करते थे. दरिद्र ब्राह्मण पुत्र सुदामा और राजपुत्र कृष्ण के बीच बराबरी वाला मैत्री भाव होता था. एक बार तो जब शिक्षा प...